नेहरू को कैसे याद करें

अपूर्वानंद
जनसत्ता 14 नवंबर 2014 




नेहरू को आज उनके जन्म के एक सौ पच्चीसवें और मृत्यु के पचासवें साल में याद करने का आशय और उद्देश्य क्या हो सकता है? पच्चीस वर्ष पहले, उनके जन्मशती वर्ष में उपेंद्र बक्षी ने स्मृति की राजनीति और विचारधारा की ओर ध्यान दिलाया था। इतिहास के एक विशेष क्षण किसी स्मृति का आयोजन कोई निर्दोष गतिविधि नहीं। यह पिछले महीने गांधी की नई राजकीय स्मृति के गठन से तो स्पष्ट ही हो गया है। गांधी यानेहरू जैसे नेताओं की याद में उठने वाले शोर को अगर कम करना हो तो शर्त लगा देनी चाहिए कि याद करनेकी अर्हता उन्हीं की है, जो उनके प्रिय उद्देश्यों को हासिल करने के लिए कुछ कर रहे हों।


प्रतियोगी या प्रतिस्पर्धी स्मृतियां एक साथ सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय रहती हैं और लोग उनमें से अपने लिए चुनाव भी करते हैं। अगर एक समय एक खास याद हावी हो जाएतो इसका अर्थ यही है कि उसने अन्य यादों के पीछे की राजनीति को उस वक्त पराजित कर दिया है। याद करने का तरीका क्या होउपेंद्र बक्षी कहते हैं कि एक तो नकारवादी हैंजो मानते हैं कि देश में आज जो कुछ भी गलत है उसके लिए नेहरू जिम्मेदार हैं। प्राथमिक शिक्षा के प्रति राजकीय उपेक्षाहिंदी का दोयम दर्जाकश्मीर की उलझी स्थितिपूर्वोत्तर की हिंसाविकास का गलत रास्ता जो प्रकृति के शोषण पर आधारित हैअतिरिक्त केंद्रीकरणजाति के प्रश्न की पूरी तरह उपेक्षाभारत की कमजोर सैन्यस्थितियहां तक कि सांप्रदायिकतासबके लिए नेहरू की गलत नीतियां जवाबदेह हैं। इन नकारवादियों के मुताबिक नेहरू को याद करने का अर्थ है इसके प्रति सचेत रहना कि क्या नहीं किया जाना चाहिए।
दूसरे याद करने वाले भावुक नेहरूवादी हैंजो मानते हैं कि परवर्ती इतिहास ने नेहरू के साथ न्याय नहीं कियाकि देश और समाज ने खुद को उनके योग्य साबित नहीं कियाकि वे गलत समझे गए या देश उनके बताए रास्ते से भटक गया। तीसरा तरीका आलोचनात्मक स्मृति का है। यह नेहरू को युगपुरुष या कालजयी महामानव के रूप में पेश नहीं करता। वे कालबिद्ध थेकालसिद्ध नहीं। कोई भी नहीं होताभ्रम भले इसका उसे या उसके अनुयायियों को हो। इस तरीके को नेहरू भी संभवतपसंद करते। उनकी सचेत आधुनिकताजिसने निश्चयात्मक या फैसलाकुन कठोरता या संकीर्णता से उन्हें हमेशा बचायाआलोचनात्मक दृष्टि को ही चुन सकती थी।
रिचर्ड एटनबरो ने ‘गांधी’ फिल्म की योजना के बिल्कुल शुरुआती दौर में नेहरू से राय लेने के लिए हुई मुलाकात का दिलचस्प वर्णन किया है। निर्धारित पंद्रह मिनटों की जगहतीन घंटे प्रधानमंत्री कक्ष में गुजारने केबाद जब वे बाहर आए तो नेहरू ने बाहर आकर उन्हें कहागांधी को मनुष्य की तरह चित्रित करनादेवता कीतरह नहीं।’ मनुष्य को देवता बना कर उसे पूजने की परंपरा वाले समाज में यह चेतावनी बहुत जरूरी थी।
नेहरू की याद हमेशा कठिन होगी। बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों से सातवें दशक तक फैला उनका सक्रिय राजनीतिक जीवनजेल में और बाहर लिखा हुआ उनका वांग्मयप्रधानमंत्री के रूप में दिए गए उनके विस्तृत व्याख्यान और मुख्यमंत्रियों या अन्य लोगों को लिखे गए उनके पत्रउनके निजी पत्र और देशी-विदेशी पत्रकारों को दिए उनके ढेर सारे इंटरव्यूनेहरू के व्यक्तित्व की जटिलता को समझने के लिए इनसे गुजरना ही होगा। इनके अलावा विवेच्य होंगे स्वाधीनता आंदोलन के दौरान लिए गए उनके निर्णय और उनके कामप्रधानमंत्री के तौर पर और एक विश्व-राजनेता के रूप में किए गए काम।
नेहरू की याद के साथ एक और पेच है। लोकप्रिय स्मृति नेहरू को गांधी के साथ ही जोड़ कर देखती है। यह कुछ विलक्षण जोड़ी है। इसे तोड़ने की कोशिश राजकीय तौर पर अब शुरू हुई हैजब गांधी के पूरक के रूप में पटेल को पेश किया गया। लेकिन खुद गांधी ने कहा थामेरे बाद जवाहर मेरी भाषा बोलेंगे।
पटेलराजेंद्र प्रसाद या राजगोपालाचारी के बारे में उन्होंने यह नहीं कहा। आखिर वे किस भाषा की बात कर रहे थेयह तो उन्हें पता था कि नेहरू ‘हिंद स्वराज’ की भाषा नहीं बोलने वाले। वे उनकी तरह धर्म की भाषा भीनहीं इस्तेमाल करेंगे। फिर वह किस भाषा की बात कर रहे थे?
गांधीवादीयानी गांधी की स्मृति के सांस्थानिक पहरेदारआज तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं खोज पाए। उन्हेंलगता रहा कि अपने उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू का चुनाव गांधी का जवाहरमोहवश किया गया निर्णय था।एक उग्र समाजवादी नेता तो इसे गांधी के वर्णवाद का परिणाम मानते थेजिन्होंने ब्राह्मण होने के कारण नेहरू को चुना।
नेहरू ने हमेशा खुद को गांधीयुग की संतानों में से एक कहा। वे स्वयं को मौलिक विचारक या दार्शनिक नहीं मानते थे। प्रचुर लिखने के बावजूद लेखक भी नहीं। परिचय देने के प्रश्न पर विचार करते हुए उन्होंने अपने सहकर्मी पर चुटकी ली कि सुना हैसुभाषबाबू खुद को लेखक कहने लगे हैं। खुद को वे राजनीतिक कार्यकर्ता ही मानते थे और हल्के मूड में जेल जाने को अपना पेशा।
नेहरू को समझने या याद करने का सबसे अच्छा तरीका एक तो उस भाषा को समझना है। वह धर्मनिरपेक्षता की भाषा ही हो सकती थी। एक हिंदू गांधीजो अपने हिंदूपन का विस्तार करने के यत्न में लगे थेसमझ पाए थे कि आजाद भारत को अगर धर्म और सामूहिकता की नई भाषा का संधान करना है तो अपनी जन्मगत सामुदायिकता के आग्रह से मुक्त होकरबल्कि उससे संघर्ष करके एक ही व्यक्ति नेतृत्व कर सकता हैऔर वे नेहरू हैं। वही जनता को चुनौती भी दे सकता है कि वह अपनी परीक्षा करे। चालीस के दशक की बहसोंको पढ़ने से उस दौर के नेताओं के आग्रह स्पष्ट हो जाते हैं।
नेहरू की स्मृति उनके संघर्षों से ही गढ़ी जा सकती है। पहला संघर्ष पश्चिमी शिक्षा और भाषा में दीक्षित युवक काअपनी खोज का और अपनी अवस्थिति की तलाश का था। अपने उद््देश्य की पहचान का भी। नेहरू खुद को अपने वर्ग और अपनी आधुनिक शिक्षा की सीमाओं से आजाद कर पाएयह उनके जीवन से प्रमाणित है। इसके साथ ही जुड़ा था उनका खुद अपने लिए अपने देश की खोज का संघर्ष। उनके अधिकतर सहकर्मीवकील थे और कई विदेश में शिक्षा लेकर आए थे। क्या अपने देश की खोज करने का अर्थ किसी मूल स्रोत तक पहुंचना था और अपने देश को हर विजातीय दूषण या विकृति से मुक्त करना थाउसके स्थान पर नेहरू ने एक बहुस्तरीय पांडुलिपि के रूपक का प्रस्ताव कियाजिसमें अनेकानेक पीढ़ियों की लिखावटें एक-दूसरे में गुंथ गई हैं और पता करना मुश्किल है कि सबसे पहले क्या था।
इसके साथ था अपने नजरिए का संघर्ष। नेहरू ने कहा कि गांधी के माध्यम से उन्होंने किसानी निगाह हासिल की। इसमें जमीन से लगावजीवटनियति का बोध और खुद को ब्रह्मांडीय योजना का एक सदस्य मात्र समझने की विनम्रता थी। नेहरू के राजनीतिक जीवन में किसानों के बीच के उनके काम पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। असावधान पाठ ने उन्हें एक शहरी व्यक्ति के तौर पर ही पेश किया हैजो गांवों का विरोधी था। आत्मकथा में उन्होंने लिखा:‘‘हममें से कई किसानी दृष्टि से दूर हट गए थेसोचने के पुराने तरीकेपरिपाटियां और धर्म हमारे लिए अजनबी हो गए थे। हम खुद को आधुनिक कहते और ‘प्रगति’ की भाषा में बात करते थे और औद्योगीकरण तथा उच्च जीवन स्तर (आदि की आकांक्षा करते थे) फिर हम किस तरह राजनीतिक रूप से गांधीजी से जुड़ पाए और उनके अनुयायी बने?’’
नेहरू के लिए खुद यह लगाव पहेली बना रहाहालांकि उनके आलोचक इसे उनका अवसरवाद कहते हैं। गांधीसे संपर्क के बाद ही पाश्चात्य आधुनिकता के वस्तुवाद और तार्किकता के प्रति उनके मन में संदेह पैदा हुआ।गांधी के साथ संबंध अपने आप में एक संघर्ष थाजो जीवनपर्यंत चलता रहा। पहले उनका खयाल था कि गांधी भारत को कहीं अच्छी तरह समझते हैं और यह देश उन्हें अपनी आत्मा मान चुका हैइसलिए गांधी के माध्यम से इस देश की जनता तक पहुंच सकते हैं,‘‘अगर गांधी को हम अपनी बात समझा पाए तो शायद देश के जन को भी प्रभावित कर सकेंगे।’’
जिस एक बिंदु पर गांधी और नेहरू बिल्कुल एक थेवह था भारत की नई साझा जुबान की तलाश का। भारतहिंदू भाषा में बात करेगा या मुसलिम भाषा मेंयह सबसे बड़ा सवाल थाजिसका उत्तर खोजने में बड़े से बड़ाक्रांतिकारी भी फिसल ही जाता था। यहां इन दोनों के सहयोगी एक तीसरे व्यक्ति हुएरवींद्रनाथ ठाकुर। भारत के राष्ट्रगान की तलाश में नेहरू और ठाकुर का संवाद इसका संकेत देता है। बंकिमचंद्र के उपन्यास ‘आनंदमठ’ के गीत ‘वंदे मातरम्’ को लेकर मुसलमानों की आपत्ति को रवींद्रनाथ ने भी उचित मानाहालांकि उन्होंनेही इसे संगीतबद्ध किया था।
उपनिवेशवाद से संघर्ष करते हुए और एक नए राष्ट्र के सृजन के क्रम में दृष्टि अंतमुर्खी  हो जाएयह नेहरू का एक और संघर्ष था। क्या एक अनाक्रामकअंतरराष्ट्रीयतावादी किस्म के राष्ट्रवाद की कल्पना संभव थी?भारत का उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष इन बहसों से गुजरा। एक तरह का अंतरराष्ट्रीय रुख सुभास बोस का थाऔर एक साम्यवादियों का। नेहरू ने इससे भिन्न रास्ते की तलाश की। आश्चर्य नहीं कि नवस्वतंत्र भारत कीआवाज वैश्विक पटल पर आदर के साथ शुरू से ही सुनी जाने लगी। इसके साथ उस जद्दोजहद को भी जोड़ लें जो राष्ट्रीय हित में नैतिकता के तत्त्व के समन्वय की रही नए राष्ट्र का उदयजिसमें पचासी प्रतिशत हिंदू थेक्या बहुसंख्यकवाद से मुक्त रह सकता थावह भी तब जब उसी के साथ एक अन्य का जन्म हो रहा होजो बहुसंख्यकवादी थाक्या भारत धार्मिक पहचानों को प्रतियोगी या प्रतिस्पर्धी बनाने की जगह पारस्परिकता के सूत्र में बांधने का प्रयास कर सकता थायह स्वप्न रामकृष्ण परमहंस से लेकर रवींद्रनाथगांधीमौलाना आजाद तक का था। नेहरू इसे लोकप्रिय करने के संघर्ष में जीते या हार गए?
नेहरू का एक बड़ा संघर्ष वैज्ञानिक संवेदना को सामाजिक संवेदनतंत्र से अभिन्न करने का था। यह विज्ञानवाद  था। इसका अर्थ मात्र वैज्ञानिक आविष्कार और अधुनातन टेक्नॉलोजी तक सीमित  था। यह दरअसलविश्लेषणात्मकता और आलोचनात्मकता को सामाजिक प्रवृत्ति के घटक तत्त्व बनाने का संघर्ष था। यह धर्मका सामाजिक चेतना से अपसरण  था समाज को परंपरा से उखाड़ देने का उद्धतपनजैसा आशीष नंदीवगैरह मानते हैं। यह इस चुनौती को प्रस्तुत और स्वीकार करना था कि बीसवीं सदी अपनी आध्यात्मिक भाषा गढ़ सकती है या नहीं।
जैसा दिखाई पड़ता हैनेहरू प्रायअपने संघर्षों में पराजित रहे। लेकिन उससे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि उनके संघर्ष बड़े थेतुच्छ  थे। वे कहते थे कि अपने क्षण से भागना कायरता हैकालातीत की शरण लेना कर्तव्यविमुखता है। पराजय हो सकती हैलेकिन अंत में आपका महत्त्व इससे पहचाना जाएगा कि आपने अपने संघर्ष चुने किस तरह के थे?

टिप्पणियाँ

  1. मैंने इतिहास बहुत कम पढ़ा है उस पर नेहरू जी के बारे में तो बहुत ही कम लेकिन इस लेख के माध्यम से उनके व्यक्तितित्व के इस पहलु से वाकिफ़ हो मैं बड़ा प्रभावित हुआ।
    सच है की व्यक्ति की सोच उसके आस पास के माहौल, उसके द्वारा पढ़े गए साहित्य, उसके संस्कारो और परवरिश एवं उसके अपने निजी अनुभवों से प्रभावित होती है। ऐसे में अपनी सोच की मौलिकता और पवित्रिता बचाये रखते हुए सत्य का चुनाव करना अपने आप मे बड़ी बात है।

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