27 जुलाई 2018

महात्मा गांधी और राष्ट्रवाद की संकल्पना

प्रभा मजुमदार 

इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी भी राष्ट्र का निर्माण एक सतत प्रक्रिया है और इसकी गति, दिशा और राह को निर्धारित करने के लिए, उस समाज और देश के नेता, विचारक तथा सामान्य नागरिकों की राष्ट्रीयता की अवधारणा बड़ा महत्व रखती है। यह अवधारणा, धार्मिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक चेतना के परिपेक्ष्य में, विभिन्न घटकों- अवययों के विमर्श, विश्लेषण-संशोधनों से गुजरते हुए, एक लंबे वैचारिक आंदोलन के दौरान लगातार परिमार्जित होती है।   

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1857 की पहले आंदोलन में जन समुदाय की एक विशाल भागीदारी संगठित रूप में उभर कर आई थी जिसमें अलग अलग धर्मों, समुदायों, भाषाई क्षेत्रों के लोगों ने स्वाधीनता का स्वप्न देखा था और हिंदू-मुसलमानों ने मिलकर साम्राज्यवाद को चुनौती दे डाली थी। अंग्रेजों ने इन दोनों धर्मावलंबियों के आचार-व्यवहार-मान्यताओं-विश्वासों में अन्तर जान लिया था और अपनी सत्ता की निरंतरता के लिए , एक दूसरे के विरोध में उनका प्रयोग भी। 

भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर गांधी जी के उभरने से पहले ही बंगाल का विभाजन हो चुका था और परस्पर अविश्वास, नफरत की खाई काफी चौड़ी हो चुकी थी, जिसके और फैलने-गहराने की दिशा में , हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही संप्रदायों के स्वयंभू संकीर्ण विचारधारा के नेताओं ने अपने अपने संगठन भी बना लिए थे। 

महात्मा गांधी रातों-रात नेता नहीं बने थे, न ही उन्होंने जल्दबाजी में कोई आंदोलन खड़ा किया। वे देश के कोने कोने और गली-कूँचों में फिरे, भारत के असली जनमानस से मिले, समझे। दरिद्रता, अज्ञान, अशिक्षा, अंधविश्वास, धार्मिक-सामाजिक पाखंड, शोषण, छुआछूत जैसी जैसी बहुत गहराई तक धँसी समस्याओं और कुरीतियों को निकट से समझा और अनुभव भी किया। समाज के हाशिये पर पड़े पिछड़ी जातियों और महिलाओं के दर्द को महसूस किया। 

इस सारे परिप्रेक्ष्य में रची गई राष्ट्रवाद की अवधारणा, निश्चित ही संकीर्ण, कट्टर और द्वेषपूर्ण नहीं हो सकती, जिसमें विरोधियों को मिटाने या प्रताड़ित करने की सोच हो, कुछ गिनेचुने लोगों या समूह के स्वार्थ हों, असमानताओं की खाइयाँ हों, जाति-भाषा-लिंग के कारण किसी को वंचित करने के षडयंत्र हों और शासक की निरंकुशता हो। 

इतना ही नहीं, उनका यह राष्ट्रवाद, समग्र मानवतावाद से बहुत भिन्न भी नहीं हो सकता था- जिसमें कोई किसी का शत्रु नहीं होता और देशभक्ति साबित करने के लिए, किसी दूसरे देश को मुर्दाबाद कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आज के हिंसा, प्रतिशोध और नफरत से भरे माहौल में भले ही यह दुर्बलता का प्रतीक लगे, मगर यह वैश्विक दृष्टि संपन्न विचारक ही नहीं, जमीन से जुड़े कर्मठ कार्यकर्ता की, अपने राष्ट्र की प्रगति, शांति और एकता के लिए आवश्यक व्यावहारिक जीवनदृष्टि थी। एक सर्वसमावेशक उदार राष्ट्रवादी होने के नाते उनके जनआंदोलन में सभी धर्मों, वर्णों, वर्गों, विचारधाराओं केआर स्त्री पुरुष बराबरी के हिस्सेदार थे।  

देश की जड़ों से गहरे जुड़े होने पर भी गांधीजी, पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान एवं दर्शन से परिचित और कुछ हद तक प्रभावित थे, दक्षिण अफ्रीका में अध्ययन जीवनयापन और संघर्षों के दौरान उनकी सोच और समझ काफी परिपक्व और पैनी हो चुकी थी। एक विशाल, शक्तिशाली और समृद्ध  साम्राज्य के आगे टुकड़ों में बंटा  अंतर्कलह से जूझता समाज नहीं टिक सकेगा, साथ ही हिंसक आंदोलन को कुचलने में भी शासन देर नहीं करेगा- यह उन्होंने भालिभांति अनुभव कर लिया था। 

वे जानते थे की भूमिगत आंदोलनों की एक सीमा होती है, क्रांतिकारी कितने ही निडर और देशभक्त क्यों न हो- उनके व्यक्तिगत प्रयास, साम्राज्यवाद को जड़मूल से नहीं उखाड़ सकते, इसके लिए जनजन की भागीदारी आवश्यक है। जन जन की भागीदारी के इसी प्रयास में उन्होने दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिलाओं को जोड़ा-राष्ट्र की राजनीति में अपना स्थान और योगदान होने का अहसास कराया। 

शहरों की सुशिक्षित जनता, प्रबुद्ध लोगों और विद्यार्थियों के साथ ग्रामीण जन, किसान, बुनकर, हथकरघा मजदूर सभी उनके आंदोलन का हिस्सा बनें। वे स्वावलंबन तथा स्वाभिमान में गहरी आस्था रखते थे अतः चरखा और हस्तकला उद्योग भारतीयों के स्वावलंबन और सम्मान का प्रतीक बन गया, लोगों को शोषण और अन्याय का हर स्तर पर विरोध करना सिखाया- चंपारण में नील के खेतिहारों के लिए उनका संघर्ष इसकी मिसाल था। 

एक राष्ट्र के रूप में वे कुछ बुनियादी मूल्यों के आग्रही थे। किसी भी हिंसा का विरोध कर सकने के नेतिक आग्रह ने  ही उन्हें चौराचोरी की हिंसा के बाद अपना आंदोलन ख़त्म कर देने का साहस दिया था। साधन की शुचिता का महत्व किसी भी  देश-समाज के अस्तित्व एवं गरिमा के लिए क्या मायने रखता है, नैतिक संबल के बगैर समृद्धि भी विनाशकारी हो जाती है और शोषण पर आधारित समाज किस तरह हिंसा और द्वेष से उफनता है- यह जान कर  ही वे कतार  के अंत में खड़े व्यक्ति, दलित कुचले वर्ग के हरदम साथ रहे।  

उनका स्वराज्य एक सत्ता हस्तांतरण मात्र नहीं था। पंचायत से लेकर सत्ता के सर्वोच्चम स्तर पर, वे सबकी भागीदारी चाहते थे जो कि एक व्यापक सामाजिक बदलाव के बगैर संभव नहीं था। इस लिए, उनकी दृष्टि में नवजागरण आंदोलन, स्वतंत्रता आंदोलन का ही हिस्सा था। शराब बंदी हो या अस्पृश्यता, अनेक सामाजिक बुराइयों की उन्होंने खुलकर आलोचना ही नहीं की वरन अपने व्यक्तिगत जीवन में विचारों और व्यवहार को एक-सा रखा। 

स्वच्छता अभियान हो या स्वावलंबन, उसका प्रचार के लिए उपयोग नहीं किया। स्वयं अपने हाथों से नालियों-शौचालयों की सफाई का कार्य एकदम सहज तरीके से किया। यह महत्वपूर्ण है कि उनकी स्वच्छता केवल शारीरिक स्तर तक नहीं थी –मन, विचार एवं क्रिया के स्तर से गुजरती हुई, अंतःकरण की स्वच्छता उनका ध्येय थी। कर्म की हिंसा ही नहीं, वे शब्द और सोच की हिंसा का उन्मूलन करने के लिए प्रतिबद्ध थे , इसीलिए किसी से घृणा भी नहीं कर सके और भयमुक्त रहे।  

आज तिरंगे में लिपटे शहीद जवानों की तादाद जैसे चिंता का विषय है, उतना भी गंभीर प्रश्न दंगे, आतंकी हमले, धर्म-जाति के नाम पर खुली हिंसा, वैचारिक भिन्नता पर धमकियाँ-हत्याएँ और अराजक तत्वों द्वारा किसी भी बात पर मनचाही लूट और हत्याएँ और इन सबको पोषित करती व्यवस्था हैं। 

क्या समता, न्याय और परस्पर सम्मान की हमारी राष्ट्रीयता की अवधारणा, हम एक सशक्त मगर दम्भी- जाहिल-असंस्कृत-असामाजिक-आत्ममुग्ध एवं दृष्टिशून्य गिरोह के हाथों गिरवी रख देंगे? तर्क-ज्ञान-विज्ञान और विचारबोध से संपन्न हो कर भी पिछड़ी, अमानवीय, स्वार्थ व अंधविश्वास पूर्ण मान्यताओं को आत्मगौरव कह कर स्वीकार कर लेंगे? हिंदु पाकिस्तान या हिंदु तालिबान जैसे शब्द बेशक आहत और अपमानित करने वाले हैं, मगर एक राष्ट्र के रूप में हमारे कदम किस दिशा में जा रहे हैं- क्या इस पर चिंतन और मंथन की जरूरत नहीं है? 

(लेखिका स्वाधीन की संपादक हैं।)

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