22 मार्च 2018

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह

1919 के जालियँवाला बाग हत्याकाण्ड के बाद ब्रिटिष सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का खूब प्रचार शुरु किया। इसके असर से 1924 में कोहाट में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। इसके बाद राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली। इन्हें समाप्त करने की जरूरत तो सबने महसूस की, लेकिन कांग्रेसी नेताओं ने हिन्दू-मुस्लिम नेताओं में सुलहनामा लिखाकर दंगों को रोकने के यत्न किये। इस समस्या के निश्चित हल के लिए क्रान्तिकारी आन्दोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किये। प्रस्तुत लेख जून, 1928 के ‘किरती’ में छपा। यह लेख इस समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों का सार है। 



भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।

ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।

यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।

दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।

अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’

जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।

यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है।

बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए।

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी।

जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है। अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए। अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी। इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी।

इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों मंे एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।

यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं। उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।

1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।

इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।

यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।

हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे।

भगत सिंह और गांधी

अशोक भारत

भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को बंगा, लायलपुर, पंंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था। देशभक्ति उन्हे विरासत में मिली थी। जिस दिन भगत सिंह का जन्म हुआ था उसी दिन उनके पिता सरदार किशन सिंह, चाचा सरदार अजीत सिंह, सरदार स्वर्ण सिंह जेल से रिहा हुए थे । इसलिए उनकी दादी ने उनका नाम भागो वाला रखा जो आगे चल कर भगत सिंह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनके चाचा सरदार अजीत सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह का जुड़ाव क्रांतिकारी आन्दोलन से था। पिता सरदार किशन सिंह कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे।


देशभक्ति भगत सिंह में कूट-कूट कर भरी थी। देश के लिए जीना और मरना उनके जीवन का मकसद हो गया था। देश का राजनैतिक माहौल तेजी से बदल रहा था। तिलक के बाद कांग्रेस की कमान गांधी जी ने संभाली थी। असहयोग आन्दोलन ने आजादी की लड़ाई में जान फूंक दी थी। देश उबाल पर था। इस माहौल में भगत सिंह का तरुण मन भला कैसे चुपचाप बैठे रह सकता था। भगत सिंह इस आंदोलन में शरीक हुए । उन्होने डी ए वी कॉलेज छोड़ कर नेशनल स्कूल में दाखिला लिया। लेकिन गांधीजी ने अचानक चौरी चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। पूरा देश गांधी जी के इस फैसले से अवाक, हतप्रभ रह गया। इसका प्रभाव भगत सिंह के मन पर भी पड़ा। इस अप्रत्याशित घटना ने भगत सिह को क्रांतिकारी आंदोलन की ओर मोड़ दिया। 

भगत सिंह की लड़ाई साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिकता दोनो के खिलाफ थी। वे एक एेसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे जिसमें व्यक्ति के व्यक्ति का और राष्ट्र के द्वारा का शोषण नहीं हो। गांधी जी के लिए स्वराज्य का मतलब समाज के अंतिम व्यक्ति को यह एहसास हो कि वह आजाद है और देश के विकास में उसका महत्वपूर्ण योगदान है। जाहिर है स्वराज्य प्राप्ति के लक्ष्य को ले कर दोनो में कोई मतभेद नहीं था। भगत सिंह का युवा मन अंग्रेजों के अत्याचार से उद्वेलित हो जाता है। वे उसे सबक सिखाने और बदला लेना अनुचित नहीं मानते हैं। तभी तो लाला लाजपत राय के खिलाफ अभियान चलाने वाले भगत सिंह लाठी चार्ज के कारण लाला जी की मृत्यु का बदला लेने की योजना की अगुवाई करते हैं, जो उनके शहादत का कारण बना। । दूसरी तरफ अहिंसा के अनन्य उपासक महात्मा गांधी अहिंसा के माध्यम से स्वराज्य प्राप्त करना चाहते थे जिसे भगत सिंह असंभव सपना मानते थे। 

स्वराज्य प्राप्ति के तरीकों में मतभेद के बाबजूद भगत सिंह यह मानते थे कि स्वराज्य के लिए लोगों में जागरण का जितना काम गांधी जी ने किया उतना किसी अन्य ने नहीं किया। इसलिए वे गांधी जी की बहुत इज्जत करते थे। गांधी जी भी भगत सिंह की बहादुरी और देशभक्ति के कायल थे। 

इतिहास अतीत से सबक सीखने के लिए है, बदला लेने अथवा महापुरूषों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने और लड़ाने के लिए नहीं है। मगर कुछ संक्रीर्ण मानसिकता वाले गांधी बनाम भगत सिंह की नकली विवाद खड़ा कर रहे हैं। खासकर युवाओं को गुमराह कर रहें हैं। जनता का ध्यान मूल सवाल से हटाने के लिए वे लोग फर्जी बहस एवं मुद्दे खड़ा करते हैं। विशेषकर युवाओं में यह भ्रम फैलाया गया है कि अगर गांधी चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे। जो लोग यह बात कह रहे हैं उन्होने न तो गांधी को समझा है और न भगत सिंह को। क्या वे समझते हैं कि भगत सिंह जिनका मिशन ब्रिटिश हुकूमत को देश से उखाड़ फेंकने के लिए देश को जगाना था ,वह स्वाभिमानी देशभक्त युवा भगत सिंह क्या अंग्रेजों की भीख दी हुई जिंदगी जीना पसंद करते। इस संदर्भ में भगत सिंह का 22 मार्च 1931 को अपने साथियों को लिखा पत्र गौर करने लायक है। उन्होंने लिखा ' साथियो, स्वभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें होनी चाहिए,मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन मैं एक शर्त पर जिन्दा रह सकता हूं कि कैद हो कर या पाबंद हो कर जीना नहीं चाहता। मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दलों के आदर्शों और और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा हरगिज नहीं हो सकता। आज मेरी कमजोरियां जनता के समने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवत: मिट ही जाए। 

दूसरा भगत सिंह को फांसी एसेम्बली बम कांड के लिए नहीं हुई थी, इस कांड में उन्हे आजीवन कारावास हुआ था। उन्हे फांसी दिलवाने में उनके एच एस आर ए के क्रांतिकारी साथियों, जय गोपाल और हंसराज वोहरा का हाथ था जो सरकारी गवाह बन गये थे सैण्डर्स हत्याकाण्ड में। इसकी चर्चा प्राय: नहीं होती है, क्यों? इसकी चर्चा करने से तो झूठ और पाखण्ड का भंडाफोड़ हो जायेगा। इस संर्दभ में यह प्रसंग गौर करने लायक है । "इधर मुकदमें की कार्रवाई प्रारंभ हो गई थी ।सामने भगत सिंह ने जय गोपाल को देखा जो अपनी मूंछें ऐंठ रहा था, जब भगत सिंह से उसकी आँख मिली उल्टे उसने भगत सिंह पर गालियों की बौछार की शुरूआत कर दी। .....भगत सिंह अचरज से जय गोपाल को देख रहे थे जिनके बारे में कभी भगत सिंह ने कहा था कि वह एच एस आर ए का गहना है।" भगत सिंह ही क्या किसी क्रतिकारी ने कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था कि उनके अपने दल के साथी उन्हे फांसी के फंदा तक पहुंचाने के कारण बनेंगे। 

खुद भगत सिंह गांधी के बारे में क्या सोचते थे ,अब जरा इस पर गौर करें। भगत सिंह जब जेल में राजनैतिक बंदियों पर राजनैतिक बंदियों जैसा बर्ताव किया जाय के प्रश्न पर अनशन कर रहे थे इस अनशन में क्रांतिकारी जतिन दास की मृत्यु हो गई थी। भगत सिंह की हालत बिगड़ रही थी। देश में चिंताएं बढ रही थीं। कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर भगत सिंह से अनशन तोड़ने का आग्रह किया। कांग्रेस का प्रस्ताव लेकर उनके पिता सरदार किशन सिंह भगत सिंह के पास गए। उन्होने भगत सिंह से कहा "बेटा कांग्रेस पार्टी ने तुमसे आग्रह किया है कि तुम लोग इस अनशन को छोड़ दो।" भगत सिंह ने कहा कि हम सभी क्रांतिकारी इस पार्टी की इज्जत करते हैं, क्योंकि हम सब को पता है कि इसने देश की आजादी के लिए कितने संघर्ष किए है। पर हाँ, यह भी सही है कि महात्मा गांधी के अहिंसापूर्ण तरीके से देश की आजादी प्राप्त करने को मैं असंभव सपना मानता हूँ। ......मगर इस बात से कौन इनकार करेगा करेगा कि भारत में किसी ने जागरण लाया है तो यह काम गांधी जी ने किया है। ......इस कारण मैं उनकी इज्जत करता हूँ।" स्पष्ट है अंग्रेजो से लड़ाई के तरीकों को लेकर भगत सिंह और गांधी में मतभेद थे। मगर इसके साथ ही भगत सिंह गांधी के काम को सर्वाधिक महत्त्व का मानते थे और इस कारण उनकी बहुत इज्जत करते थे। 

इस बारे में सुभाष चंद्र बोस का बयान महत्त्वपूर्ण है। सुभाष चंद्र बोस कहते हैं कि " जैसे ही मुम्बई की ट्रेन से हम लोग दिल्ली पहुंचे कि महात्माजी को खबर मिली कि सरकार ने लाहौर षड्यंत्र के सरदार भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी पर चढ़ाने का फैसला कर लिया है। इन युवकों को बचाने के लिए महात्मा जी से कहा गया और उन्होंने उन्हें बचाने के लिए अधिक से अधिक कोशिश की। वायसराय ने स्वयं गांधीजी से कहा था कि मुझे तीन बंदियों की फांसी की सजा को रद्द करने के बारे में बहुत से लोगों के हस्ताक्षरसहित अर्जी मिली है।फिलहाल मैं इस फांसी की सजा को स्थगित कर दे रहा हूँ और बाद में इस मामले पर गम्भीरता से विचार करूँगा। लेकिन इससे अधिक मुझ पर इस समय और अधिक दबाव न डाला जाय।"

स्वयं गांधीजी ने कांग्रेस के कराची अधिवेशन में, जो भगत सिंह के फांसी के तुरंत बाद में हुई थी, एक प्रश्न के उत्तर में कहा था " मैं वायसराय को जिस तरह से समझा सकता था , उस तरह से समझाया। समझाने की जितनी क्षमता मुझमें थी, सब मैंने उनपर आजमा कर देखी। भगत सिंह के परिवार वालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन अर्थात 23 मार्च को सबेरे मैंने वायसराय को एक खानगी खत लिखा। उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा उंड़ेल दी, सब बेकार गया। आप कहेंगे कि मुझे एक बात और करनी चाहिए थी - सजा को घटाने के लिए समझौते में एक शर्त रखनी चाहिए थी पर फांसी की सजा समझौते के बाद सुनाई गई। अब ऐसा नहीं हो सकता था।" 

स्पष्ट है जो लोग यह प्रचार कर रहे है कि गांधी जी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास नहीं किया इसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है, यह पूरी तरह भ्रामक और असत्य है। वे कौन लोग हैं जो सुनियोजित ढंग है गांधी के बारे में झूठ और भ्रम फैलाकर लोगों को गुमराह कर रहे हैं। ये वो लोग हैं जिन्होने आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों का साथ दिया था ,अब अपना खोटापन को छिपाने के लिए गांधी के खिलाफ समाज में जहर फैलाने के कुत्सित प्रयास में लगे हैं। इस अभियान में दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनो विचार से जुड़े कुछ लोग शामिल हैं। 

भगत सिंह साम्प्रदायिकता को भी उतनी ही बड़ी दुश्मन मानते थे, जितना साम्राज्यवाद को। भगत सिंह ने जिस नौजवान सभा की संरचना की उसने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव भगत सिंह की अगुआई में पारित किया कि किसी भी धार्मिक संगठन से जुड़े नौजवान को उसमें शामिल नहीं किया जा सकता क्योकि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है और साम्प्रदायिकता हमारी दुश्मन है जिसका हर हालत में विरोध किया जाना चाहिए।

1919 में जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का खूब प्रचार शुरू किया। इसके असर से 1924 में कोहाट में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। उसके बाद राष्ट्रीय राजनीति चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली। इस मौके पर भगत सिंह ने जो विचार व्यक्त किए वह गौर करने लायक है। "भारतवर्ष की दशा इस समय अत्यन्त दयनीय है । एक धर्म के अनुनायी दूसरे धर्म के अनुयायियों को जान के दुश्मन हैं। .....यह मार-काट इसलिए नहीं है कि फलां आदमी दोषी है, वरना इसलिए कि फलां आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य अंधकारमय नजर आता है। इन दंगों ने संसार की नजर में भारत को बदनाम किया है। इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबार का हाथ है।" भगत सिंह लाला लाजपत राय की बहुत इज्जत करते थे। यह मालूम होते ही कि लाला लाजपत राय का रुझान साम्प्रदायिक होने लगा है तो उन्होंने उनकी विचार धारा के खिलाफ एक मुहिम छेड़ दी।...जिसमें बडे- बड़े बैनरों पर लाला जी का चित्र बना कर उन्हे मरा हुआ नेता लिख कर लाहौर में बंटवाया।

आज एक बार फिर देश का साम्प्रदायिक माहौल बिगड़ रहा है। जो काम कभी अंग्रेजी हुकूमत करती थी वही काम इस समय देश का शासकवर्ग कर रहा है। देश का साम्प्रदायिक वातावरण बिगाड़ने, लोगों को बांटने और शासन करने की साजिशें परवान चढ़ रही हैं। ऐसे में भगत सिंह का साम्प्रदायिकता पर स्पष्ट विचार इस घने अंधकार में प्रकाशपुंज की तरह हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। आजादी के दौर और उसके बाद के वर्षों में जिस दृष्टि, मूल्य, विचार एवं कार्यक्रम पर राष्ट्रीय सहमति थी उसको चुनौती देने वाली,और राष्ट्र को विपरीत में ले जाने वाली कटिबद्ध ताकतें आज हाशिए से केन्द्र में आ गई हैं। उग्र राष्ट्रवादी एवं पुनरुत्थानवादी ताकतें आज उभार पर हैं । प्राचीन सभ्यता वाले देशों में भारत ही अकेला है जिसके जीवन में आज भी उसकी पुरानी संस्कृति के उदात्त मानवीय मूल्य एवं समता वाली दृष्टि की छाप मौजूद है। संयम,सहअस्तित्व एवं समन्वय भारतीय संस्कृति की आत्मा है।

भगत सिंह ने साम्राज्यवाद को इस देश से उखाड़ फेंकने तथा इसके लिए देश, विशेषकर युवाओं को जगाने के लिए आपना आत्मबलिदान दिया। आज साम्राज्यवाद पहले से ज्यादा खतरनाक रूप में देश को अपने चपेट में ले चुका है। साम्प्रदायिक एवं फासीवादी शक्तियां देश का साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने तथा सदियों से कायम गंगा-यमुनी संस्कृति को खत्म करने में लगी हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि भगत सिंह के विचार को मानने वाले, उनसे प्रेरणा लेने वाले युवा क्या आज भगत सिंह की विरासत संभालने के लिए तैयार है? देश को इन्तजार है ऐसे देशभक्त सपूतों का जो भगत सिंह के विचार एवं देशभक्ति की परम्परा को आगे बढ़ाएं ।

(लेखक सर्वसेवा संघ के पूर्व राष्ट्रीय संयोजक और युवा संवाद के राष्ट्रीय संयोजक हैं इनसे निम्न ईमेल आईडी और मोबाइल नंबर पर संपर्क किया जा सकता है...bharatashok@gmail.com, mob. 9430918152) 

संदर्भ : 1. गांधी और भगत सिंह , ले. सुजाता, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी 
2. गांधी और सुभास, ले. सुजाता , सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी 
3. भगत सिंह से दोस्ती , सं. विकास नारायण राय, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद

4 मार्च 2018

क्या गांधीजी वाकई कांग्रेस को भंग करना चाहते थे?


भाजपा अपने ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ अभियान को सही ठहराने के लिए बार-बार गांधीजी का सहारा लेती है. अभी कितने दिन बीते हैं जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गांधीजी की सार्वजनिक प्रशंसा करते हुए कहा था कि उनके द्वारा कांग्रेस को भंग करने की इच्छा दरअसल एक दूरदर्शी अपील थी.
उनके इसी भाषण में गांधीजी के साथ जातिसूचक प्रत्यय ‘चतुर बनिया’ जोड़ने पर उनका काफ़ी विरोध हुआ था. लेकिन गांधीजी ने कांग्रेस को भंग करने के संबंध में क्या कुछ कहा था, इसका कोई विरोध नहीं हुआ. आम तौर पर लोगों के दिल में यह धारणा बैठा दी गई है कि गांधीजी वास्तव में ऐसा ही चाहते थे.
दो दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में इसी मुद्दे को फिर गर्मा दिया. उन्होंने कहा कि वो तो सिर्फ़ गांधीजी के सपनों का भारत बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं. क्योंकि कांग्रेस-मुक्त भारत का विचार नरेंद्र मोदी का नहीं बल्कि ख़ुद गांधीजी का विचार था.
इस बार इस बात की बारीक़ी से जांच-पड़ताल करनी ज़रूरी है कि ऐतिहासिक रूप से सच क्या है?
यह सच है कि अपने अंतिम दिनों में गांधीजी आज़ाद भारत में कांग्रेस की बदली हुई भूमिका के बारे में गंभीरता से सोच रहे थे. गांधीजी ने अपनी हत्या के तीन दिन पहले यानी 27 जनवरी 1948 को एक नोट में लिखा था कि अपने वर्तमान स्वरूप में कांग्रेस ‘अपनी भूमिका पूरी कर चुकी है’. जिसे भंग करके एक लोकसेवक संघ में तब्दील कर देना चाहिए.
यह नोट एक लेख के रूप में 2 फ़रवरी 1948 को ‘उनकी अंतिम इच्छा और वसीयतनामा’ शीर्षक से हरिजन में प्रकाशित हुआ. यानी गांधीजी की हत्या के दो दिन बाद यह लेख उनके सहयोगियों द्वारा प्रकाशित किया था. यह शीर्षक गांधीजी की हत्या से दुखी उनके सहयोगियों ने दे दिया था.
इस शीर्षक को बिना यह संदर्भ देखे कुछ विद्वान बिना विश्लेषण जस-का-तस अपना लेते हैं.
उदाहरण के तौर पर राजनीति विज्ञानी लॉयड और सूज़न रुडोल्फ़ कहती हैं, ‘नाथूराम गोडसे के हाथों अपनी हत्या के 24 घंटे पहले गांधीजी अपनी अंतिम इच्छा और वसीयतनामे में प्रस्ताव करते हैं कि कांग्रेस को भंग कर दिया जाना चाहिए और उसकी जगह लोकसेवक संघ की स्थापना करनी चाहिए जो जनता की सेवा के लिए बनाया गया संगठन होगा.’
यानी लेख को दिया गया शीर्षक और गांधीजी के मरणोपरांत उसके प्रकाशन ने इस नोट को उससे ज़्यादा प्रासंगिक बना दिया जितना गांधीजी ख़ुद चाहते थे.
जबकि ‘उनकी अंतिम इच्छा और वसीयतनामा’ को उसी दिन हरिजन में प्रकाशित एक और वक्तव्य के साथ जोड़कर पढ़ा जाना चाहिए, ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जो कि सबसे पुराना राष्ट्रीय राजनीतिक संगठन है, जिसने कई अहिंसक संघर्षों के माध्यम से आज़ादी जीती है, को ख़त्म करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. यह सिर्फ़ राष्ट्र के साथ ही ख़त्म होगा.’
उनका यह बयान सिद्ध करता है कि गांधीजी उस समय भी कांग्रेस की भूमिका देखते थे और यह सोच रहे कि भविष्य में यह कैसी हो?
गांधीजी ने दरअसल जो लिखा था वो एक संविधान का मसौदा था न कि उनकी अंतिम इच्छा और वसीयतनामा. यदि गांधीजी जीवित रहते तो इस बात की पूरी संभावना थी कि इस मसौदे पर कांग्रेस के अंदर संपूर्णता से बहस होती.
उनकी यह टिप्पणी कांग्रेस और उसके संगठन की स्वातंत्र्योत्तर भारत के ज़रूरत के हिसाब से कैसे पुनर्गठन हो, इस पर चल रही बहस के संदर्भ में की गई थी.
आज़ादी मिलने के साथ आज़ादी दिलाने में पार्टी की ऐतिहासिक भूमिका समाप्त हो गई थी और अब उसे सामाजिक-आर्थिक क्रांति के लिए तैयार करना था. यह बहस पार्टी नेतृत्व द्वारा 1946 में तब शुरू की गई थी जब कांग्रेस कमेटियों को इस संबंध में एक सर्कुलर भेजकर अपनी राय व्यक्त करने को कहा गया था.
अगले कुछ महीनों में जयप्रकाश नारायण, रघुकुल तिलक, जेबी कृपलानी सहित तमाम कांग्रेस नेताओं की प्रतिक्रियाएं सामने आई थीं. तिलक कांग्रेस को भंग करने की हालत में पैदा होने वाले निर्वात के प्रति चिंतित थे जिसे उनके मुताबिक़ सांप्रदायिक दल तेज़ी से भरने का प्रयास करते.
कांग्रेस अध्यक्ष कृपलानी ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चल रहे संघर्ष के समाप्त होने की हालत में कांग्रेस को एक नया स्वरूप देने की सलाह दी.
उन्होंने कांग्रेस की भूमिका सरकारी नीतियों को क्रियान्वित करने वाले और जनता तथा सरकार के बीच सेतु बनने वाले संगठन की देखी.
लोहिया चाहते थे कि कांग्रेस समाजवादी रास्ते को अपना ले और इस उद्देश्य से मज़दूर और किसान संगठनों से जुड़े.
गांधी ने कांग्रेस को भंग करने की बात कांग्रेस पर हावी सत्ता की राजनीति से मोहभंग के सीमित संदर्भों में नहीं की थी. बल्कि पार्टी को नई परिस्थितियों का प्रभावी ढंग से सामना करने के हिसाब से ढालने के संदर्भ में की थी.
गांधी नोआखाली के दिनों से ही भविष्य में पार्टी की भूमिका को लेकर चल रहे विचार-विमर्श में शामिल थे जो कि 1947 के अंत और 1948 की शुरुआत तक जारी था.
इस तरह अगर हम कांग्रेस की भूमिका पर बहस के उद्भव को देखें तो यह साफ़ हो जाता है कि यह गांधीजी की कोई ऐसी राय नहीं थी जो कांग्रेस के आधिकारिक पक्ष के विरुद्ध थी.
ऐसा लगता है कि यह दावा बार-बार इसलिए किया जाता है कि इस लोकप्रिय मिथ को सही सिद्ध किया जा सके कि अपने अंतिम दिनों में गांधीजी कांग्रेस और उसके नेताओं से दूर हो गए थे.
यह एक ऐसा मिथ है जो गांधीजी और अन्य राष्ट्रीय नेताओं की छवि को अपने मनमुताबिक गढ़ने और बाकी नेताओं की प्रतिष्ठा को धूलधूसरित करने की छूट देता है. यह और कुछ नहीं बल्कि हमारे राष्ट्रीय नेताओं की छवि विकृत करने के भाजपाई अभियान का हिस्सा है.
(प्रो. सुचेता महाजन इतिहासकार और जेएनयू में सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज़ की अध्यक्ष हैं. सौरभ बाजपेयी राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं.)
http://thewirehindi.com/33776/congress-mukt-bharat-bjp-agenda-mahatma-gandhi/?utm_source=socialshare&utm_medium=whatsapp, ४ मार्च २०१८. 


स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति

लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिस...