28 जनवरी 2018

क्या नेताजी के ज़िंदा होने की ख़बर नेहरू को घेरने के लिए फैलाई गई थी?

सौरभ बाजपेयी 
23/01/2018

लोगों को यक़ीन दिलाया गया कि नेताजी इसलिए भूमिगत रहे क्योंकि नेहरू ने ब्रिटिश सरकार से गुपचुप समझौता किया था कि अगर नेताजी कभी जीवित मिलते हैं तो उन्हें एक युद्ध अपराधी के रूप में तत्काल ब्रिटेन को सौंप दिया जाएगा.

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फोटो साभार: विकिपीडिया

एक बार तकरीबन सत्तर साल के एक बुजुर्ग मिले. घरों में अखबार डालने वाले इन बुजुर्ग की शर्ट पर एक बिल्ला टंका था. उस पर नेताजी की तस्वीर के साथ लिखा था- नेताजी जिंदा हैं.

यह बात लगभग आठ बरस पुरानी रही होगी. मैंने हिसाब लगाया कि 23 जनवरी 1897 को कटक में पैदा हुए नेताजी अगर वाकई जिंदा होते तो आज कितने बरस के होते? यकीनन उनकी उम्र तब लगभग 113 बरस होती. किसी भी व्यक्ति के लिए इतनी लम्बी उम्र तक सक्रिय रहना तो दूर, ठीक से जीना ही असंभव होता है.

लेकिन उन अर्धशिक्षित बुजुर्ग के लिए नेताजी अभी जिंदा थे. यह पूछने पर कि इतने निडर नेताजी आखिर किससे डरकर भूमिगत हैं, बड़ा भोला-सा जवाब मिला- वो अंदर ही अंदर तैयारी कर रहे हैं. जिस दिन उनकी तैयारी पूरी हो जायेगी, वो प्रकट हो जायेंगे.

उनसे पूछना बेकार था कि क्या तैयारी और किस चीज़ की तैयारी? भारत जैसे देशों में महानायक आस्था का विषय बन जाते हैं. नेताजी एक महानायक थे जिनके भीतर आम लोगों को एक मुक्तिदाता दिखाई देता था.

बाद के दिनों में यह समझने की भरसक कोशिश की कि नेताजी के जिंदा होने के पीछे का राज़ क्या है?

कई लोगों ने गांधी को अपने सीने पर तीन गोलियां खाते देखा था. कईयों ने गोलियों से छलनी उनके शरीर की फोटो देखी थी. लेकिन नेताजी की विमान दुर्घटना के बाद उनके न होने की सिर्फ खबर आयी थी. किसी ने उनकी लाश नहीं देखी, कोई उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुआ.

जब आज के ताइवान में ताईहोकू एरोड्रम पर उनका ओवरलोड प्लेन क्रैश हुआ तो उनके साथ कई लोग थे. जिनमें से कर्नल हबीबुर्रहमान और जापानी मेजर कोनो ने अपने बयानों में नेताजी के बुरी तरह झुलस जाने और फिर संघर्ष करते हुए अचेत हो जाने की पुष्टि की थी.

हबीबुर्रहमान का कहना है कि नेताजी ने अंतिम समय में उनसे कहा कि- “हबीब, मेरा अंत बहुत जल्द निकट आ रहा है. मैंने अपनी पूरी जिंदगी देश की आज़ादी के लिए लगा दी. मैं अपनी मातृभूमि भूमि के लिए ही प्राणों का उत्सर्ग भी कर रहा हूँ. जाओ और मेरे देशवासियों से कहो कि वो भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ते रहें. भारत बहुत जल्द आज़ाद होगा.”

नैनमोन आर्मी हॉस्पिटल के डॉ० तानेयोशी योशिमी ने उनकी मृत्यु के बाद उनका डेथ सर्टिफिकेट बनाया. जापानी भाषा में ‘चन्द्र बोस’ की मृत्यु का यह प्रमाणपत्र बाद में स्थानीय म्युनिसिपल ऑफिस में जमा किया गया. लेकिन बाद के दिनों में जब उसे खोजने की कोशिश की गयी तो नहीं मिला क्योंकि ताइवानी इतिहास के इस दौर के ज्यादातर जापानी रिकॉर्ड नष्ट कर दिए गए थे.

सिर्फ़ आंखों को छोड़कर पूरे शरीर में लिपटी पट्टियों वाले नेताजी के शव की कोई फोटो भी नहीं खींची गयी थी. हालांकि उनके शरीर को संरक्षित करने के लिए होमोलिन के इंजेक्शन दिए गए थे. योजना यह थी कि उनके शव को सिंगापुर या टोकियो पहुंचाया जा सके.

लेकिन उस समय जापान आत्मसमर्पण की शर्तें तय कर रहा था और अमेरिका ने औपचारिक रूप से कब्ज़ा नहीं जमाया था, इसलिए अंततः उनका शव का ताइपे में ही 20 अगस्त 1945 को अंतिम संस्कार कर दिया गया.

नेताजी की मृत्यु पर यकीन न करने के पीछे कुछ और घटनाएं भी ज़िम्मेदार हैं. जिस तरह 1941 में अंग्रेजी खुफिया विभाग को धता बताकर नेताजी देश छोड़कर निकल भागे थे, उसने उन्हें चमत्कारिक नायक का दर्जा दे दिया था. फिर 1942 में खबर आयी कि एक प्लेन क्रेश में नेताजी की मृत्यु हो गयी है.

यह खबर इतनी ज्यादा फ़ैली कि गांधीजी ने नेताजी की मां को चिठ्ठी लिखकर इस अफवाह पर अपनी चिंता प्रकट की. फिर बाद में यह खबर भी झूठ निकली और इस घटना ने नेताजी की छवि एक ऐसे नायक की बना दी जो अपने दुश्मन को बार-बार धता बताने में माहिर था.

इसीलिए जब 1945 में नेताजी की मृत्यु हुई तो आम जनमानस ने इसे सच मानने से सिरे से इनकार कर दिया. इसके बाद नेताजी के जीवित होने की खबरें उनके नायकत्व के प्रति अपार आदरभाव से भरे लोगों के लिए एक सच्चाई बन गयीं.

फिर भारत में तब तक एक ऐसी विचारधारा तैयार खड़ी हो गयी थी जो नेहरू को खलनायक बनाने पर तुली हुई थी. आरएसएस ने नेताजी की मृत्यु और गुमनामी की अफवाह में झूठ और फरेब का तड़का लगाकर उसे आम जनता के बीच सत्य बना देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी.

आरएसएस ने सोचा कि इस ग़लतफ़हमी को ही वैकल्पिक इतिहास बनाकर परोसा जाए. एक ऐसा वैकल्पिक इतिहास जिसे नेहरू के प्रशंसक वामपंथी इतिहासकार जानबूझकर छिपा ले जाते हैं.

लोगों को यकीन दिलाया गया कि नेताजी इतने लंबे समय तक इसलिए भूमिगत रहे क्योंकि नेहरू ने ब्रिटिश सरकार से गुपचुप अंदरूनी समझौता कर लिया था. यह समझौता था कि अगर नेताजी कभी जीवित मिलते हैं तो उन्हें एक युद्ध अपराधी के रूप में तत्काल ब्रिटेन को सौंप दिया जाएगा.

दरअसल, ब्रिटिश सरकार नेताजी की मृत्यु की खबर को लेकर बहुत सतर्क थी. वो हर तरह से जांच-परखकर ही इस मुद्दे पर यकीन करना चाहती थी. इसलिए उसने अपने दो खुफिया अधिकारियों को खबर की सत्यता की जांच के लिए ताइवान भेजा था.

ब्रिटिश सरकार नेताजी की लोकप्रियता को देखते हुए यह तय करने की उधेड़बुन में थी कि विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद अगर कहीं नेताजी जीवित वापस आ गए तो उनके साथ क्या सलूक किया जाए?

लेकिन ब्रिटिश सरकार की नीति को आज़ाद भारत में नेहरू की सरकार पर भी मनमाने ढंग से थोप दिया गया क्योंकि इससे स्वाधीनता आंदोलन के दो कद्दावर साथियों को एक-दूसरे के बरक्स आसानी से खड़ा किया जा सकता था.

इस बात की फ़िक्र किसे थी कि आज़ाद हिन्द फौज के कैदियों पर दिल्ली के लालकिले में चले ऐतिहासिक मुकदमे के वक़्त सैनिकों के बचाव में नेहरू ने दशकों के बाद अपना बैरिस्टरी वाला कोट पहना था.

इसके अलावा यह इतिहास भी छिपा लिया गया कि 1920 के दशक के मध्य से ही नेहरू और सुभाष की जोड़ी ने ही बड़ी संख्या में युवाओं को राष्ट्रीय आंदोलन की ओर आकर्षित किया था. यह तथ्य भी गुमनाम हो गया कि दोनों ने मिलकर जाने कितनी बार कांग्रेस की बुजुर्ग पीढ़ी के सामने नयी ऊर्जा और तेवर वाली राजनीति की पैरवी की थी.

अव्वल तो नेताजी को ब्रिटेन को सौंपने की बात ही सरासर गप्प है. लेकिन अगर कुछ समय के लिए यह मान भी लें तो क्या इतनी बड़ी राजनीतिक हैसियत और अपार जनसमर्थन वाले नेताजी को नेहरू ब्रिटेन को सौंपने का जोखिम ले सकते थे?

या क्या दुनिया की सबसे ताकतवर सत्ता के टकराने का साहस रखने वाले नेताजी इतने बुजदिल हो सकते थे कि ब्रिटेन को सौंपे जाने के डर से भूमिगत रहकर गुमनामी की जिंदगी गुजार लेते?

अभी पिछले साल की तो बात है जब नेहरू द्वारा नेताजी की जासूसी सम्बन्धी फ़र्जी फाइलें दिखाकर भाजपा सरकार ने अपनी किरकिरी कराई थी.

नेताजी के दूरदराज के कुछ रिश्तेदारों को सत्ता की रेवड़ियां दिखाकर उन्हें आरएसएस के एजेंडे पर खेलने के लिए टीवी चैनल्स के सामने पेश किया गया था. जबकि उनके सबसे करीबी रिश्तेदार जिनमें प्रसिद्ध इतिहासकार सुगाता बोस भी शामिल हैं, बार-बार नेताजी की मृत्यु और जासूसी से जुड़ी खबरों का खंडन करते रहे.

जिन लोगों ने भी नेताजी को पढ़ा-समझा-जाना है वो जानते हैं कि नेताजी कुछ भी हो सकते थे, अप्रासंगिक नहीं हो सकते थे. चुपचाप या गुमनाम बैठकर तमाशा देखना उनकी फ़ितरत नहीं थी.

नेताजी अगर जिंदा होते तो सबके सामने अपने चिर-परिचित तेवरों के साथ खड़े होते भले ही वो नेहरू के साथ होते या स्वतंत्र भारत में नेहरू के विरुद्ध क्योंकि नेताजी, नेताजी थे. वो दिलों में जिंदा थे, हैं और रहेंगे. और जो दिलों में जिंदा रहते हैं वो जिंदा रहते हुए छुपकर हरगिज नहीं रहते.

(लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं.)

http://thewirehindi.com/32184/netaji-subhash-chandra-bose-rss-nehru-british-government/, २८ जनवरी २०१८. 

ON INDIAN CONSTITUTION

Dr Richa Raj
26 January 2018


Mr Anant Kumar Hegde, a five-time Lok Sabha member from Uttara Kannada, who has been made Union Minister of Skill Development and Entrepreneurship in Prime Minister Narendra Modi's cabinet made a controversial remark recently attacking the word ‘secularism’ and asserting, ‘We are here to change the Constitution and we'll change it’ clearly marking a devaluing of the Indian Constitution in its present form even though his party distanced itself from this statement.



In the light of this statement it is imperative to understand both the significance of the Indian Constitution and the date on which the Constitution was enacted. It was on 26 November 1949 that the Constitution was signed by the President of the Constituent Assembly. The draft was voted upon and adopted but the draft itself clearly states ‘that on the 26th of January India shall be a Republic in 1950 when this draft will turn into a Constitution and we shall enact’ it then. Further, in the two months between 26 November 1949 and 26 January 1950 after India adopted this Constitution the law that governed India was the India Independence Act, 1947 moved by the British Prime Minister Clement Attlee in the House of Commons in London. So India did not turn into a Republic on 26 November 1949, as some would like to believe. It was on 26 January 1950 that India became a republic.


The makers of the Constitution specially chose the date 26 January as the date for enacting and adopting the Constitution because of its historical significance. It was on 26 January 1930, that the Indian National Congress at its Lahore session passed a resolution demanding purna swaraj or full freedom from colonization. The members of the drafting committee felt that the birth of the constitution should be observed on a day that held some significance in their fight for independence. January 26 was thus the date assigned to celebrate India's Republic Day. This was the day the Indian Independence Act was consequently repealed and India was established as a democratic republic, no longer a dominion of the British Crown.


It was Mahatma Gandhi who chose 26 January 1930 as the date to introduce the concept of purna swaraj which was embedded in the ‘Declaration of Independence’ adopted by Jawaharlal Nehru and the Indian National Congress at Lahore in December 1929. 


Anthony J. Parel, who has written extensively on Mahatma Gandhi, calls this Declaration one of the principal documents of modern Indian history with philosophical depth as well as rhetorical flourish. It is a statement of India’s grievances against British colonial exploitation, economic, political, cultural and spiritual, and ends with the solemn pledge: ‘We therefore hereby solemnly resolve to carry out the Congress’s instructions, issued from time to time for the purpose of establishing purna swaraj.’ It also enshrines the liberal concepts of inalienable rights and governments based on the consent of the governed. Since the British government had based itself on the exploitation of the Indian masses, the Indian National Congress asserted that India must sever the British connection and attain purna swaraj or complete independence. As the author of the Declaration, Gandhi wanted to educate the people ‘why and wherefore’ the Declaration was drafted and proclaimed. Indians must grasp its underlying political philosophy, he believed. Indians needed political swaraj because it was their inalienable right. He also emphasized that governments originate from the consent of the governed. If the colonial government lacked the consent of the Indian people, Indians had the right and the duty to abolish it. Gandhi asserted the ideal of non-violence saying that the most effective way of gaining freedom was not through violence. Civil disobedience, withholding of taxes, and withdrawal of support for the colonial system through non-violent means would end the inhuman rule. 


The Indian Constitution enacted on 26 January 1950 is, according to Granville Austin, first and foremost a social document with the majority of India's constitutional provisions either directly arriving at furthering the aim of social revolution or attempting to foster this revolution by establishing conditions necessary for its achievement. The text provides constitutional guarantees and protections for a wide range of civil liberties for individual citizens, including freedom of religion, the abolition of untouchability and the outlawing of all forms of discrimination. Extensive economic and social rights for women were argued for in the Constituent Assembly debates, and the Assembly's support was garnered to introduce a system of reservations of jobs in the civil services, schools and colleges for members of scheduled castes and scheduled tribes, a system akin to affirmative action. India's lawmakers hoped to eradicate the socio-economic inequalities and lack of opportunities for India's depressed classes through this measure.


Dr B.R. Ambedkar, widely accepted as the architect of Indian Constitution and constitutional and legal expert par excellence proposed to the Constituent Assembly that the chapter on fundamental rights in the Constitution should include rights relating to civil liberties as well as those relating to social and economic justice explaining why his vision of the rights of citizenship would entail extensive state control over the economy. He also stressed on the absolute rights of minorities: “The first right that we have given is the right to use their language, their script and their culture. We have stated that ‘there shall be no discrimination on the ground of religion, language, etc.’ in the matter of admission into state educational institutions. We have said that ‘no minority shall be precluded from establishing any educational institution which such minority may wish to establish.’ It is also stated that whenever a state decides to provide aid to schools or other educational institutions maintained by the minority, they shall not discriminate in the matter of giving grant on the basis of religion, community or language.” (Babasaheb Ambedkar: Writings and Speeches, volume 13, 1994) Secularism is thus implicit in the entire constitutional framework. It guarantees equality in Article 14 and promises non-discrimination on grounds of religion, race, caste etc. in Article 15, and generally and specifically in public employment in Article 16. It ensures the fundamental rights to freedom of religion individually in Article 25 and collectively in Article 26. It promises protection from religious taxes and religious instruction in state-funded institutions set in Articles 27 and 28. It allows permission of educational institutions of choice to linguistic and religious minorities in Articles 29 and 30 and the promise of equal ballots devoid of sectional preferences in Article 325 — all of which makes for a constitutional framework devoid of any religious preference whatsoever. This also meant that the state would remain equidistant from every possible religion and that no particular religion would enjoy patronage by the state to the exclusion of the other, and that the rights of the minorities would be safeguarded by the state. 


To proclaim a desire to change the constitution is to negate the extensive and exhaustive debates that the constitution-makers went through regarding core issues faced by a new state: the nature of the state itself, fundamental rights and duties of its people, affirmative action against discrimination of all sorts, economic planning and so on, as much as it is to smear the sanctity of the Document itself. The people of the Republic must stand guard against such problematic tendencies!!!

Wishing everyone freedom and tolerance on our Republic Day !!!

Warmly

Dr Richa Raj
NMF

7 जनवरी 2018

भीमा-कोरेगांव युद्ध को याद करने वाले किस आधार पर ‘देशद्रोही’ सिद्ध किए जा रहे हैं?

सौरभ बाजपेयी 06/01/2018


जो लोग भीमा-कोरेगांव युद्ध की याद में आयोजित समारोह के आयोजकों को राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर रहे हैं वो यह क्यों छुपा ले जाते हैं कि न जाने कितनी बार मराठों ने भी अंग्रेज़ों के साथ मिलकर अन्य राज्यों के ख़िलाफ़ लड़ाइयां लड़ी हैं.

Mumbai: Dalit protesters take part in a bike rally on the Eastern Express Highway in Thane, Mumbai on Wednesday after Bhima Koregaon violence. PTI Photo (PTI1_3_2018_000136B)
भीमा-कोरेगांव में एक जनवरी को हुई हिंसा के विरोध में ठाणे में दलित संगठनों ने प्रदर्शन किया. (फोटो: पीटीआई)

इतिहास के मुद्दे तय करने के लिए अब इतिहासकारों की नहीं, भीड़ की जरूरत है. 21वीं सदी के ‘आधुनिक भारत’ में लोग अतीत का एक और बदला चुकाने के लिए तैयार हैं. पद्मावती से पद्मावत तक का सफर पूरा होते ही इतिहास का एक और गड़ा मुर्दा निकालकर बाहर लाया गया है. नए साल में इतिहास के उन्मादीकरण का एक और नया अध्याय मुबारक हो!

दो सौ साल पहले लड़ी गई एक हार का बदला वर्तमान में चुकाने की बिसात बिछ चुकी है. 1 जनवरी 1818 को भीमा-कोरेगांव युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी की एक छोटी टुकड़ी ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की अपेक्षाकृत बड़ी सेना को बुरी तरह हरा दिया था.

इस लड़ाई में कंपनी की तरफ से लड़ने वाले ज्यादातर सैनिक महाराष्ट्र की दलित महार जाति से ताल्लुक रखते थे. वैसे तो महार शिवाजी के समय से ही मराठा सेना का हिस्सा रहे थे लेकिन बाजीराव द्वितीय ने अपनी ब्राह्मणवादी संकीर्णता की वजह से उनको सेना में भर्ती करने से इनकार कर दिया था.

यह युद्ध ढलती हुई पेशवाई के लिए एक निर्णायक पराजय सिद्ध हुआ. मराठों की पेशवा परंपरा के सबसे कमजोर प्रतिनिधि बाजीराव द्वितीय की इस हार के बाद मराठा पेशवा कंपनी सरकार के वेतनयाफ्ता कैदी होकर रह गए. एक तरह से यह शिवाजी के स्वराज का औपचारिक अंत था.

महाराष्ट्र की उच्चवर्णीय सांस्कृतिक चेतना में मराठे और पेशवा महानायक की तरह याद किए जाते हैं. समाज-सुधार आंदोलन के पुरोधा ज्योतिबाराव फुले ने पहली बार महारों के भीतर जातिगत अस्मिता का बोध पैदा किया. बीसवीं सदी के दूसरे दशक में महारों के बीच से डॉ० आंबेडकर जैसे प्रखर बुद्धिजीवी नेता उभरकर सामने आने लगे.

दलित समाज के बीच से उभरे इस नेतृत्व के सामने सबसे बड़ी चुनौती ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना के खिलाफ लड़ते हुए अपना आत्मसम्मान वापस पाना था. इस संधान में भीमा-कोरेगांव का युद्ध एक मजबूत प्रतीक बनकर सामने आया. इस युद्ध को डॉ आंबेडकर ने कंपनी सरकार के बजाय महारों द्वारा ब्राह्मणवादी पेशवाई को उखाड़ फेंकने वाली घटना के तौर पर याद किया.

दलित नायकों में ज्योतिबाराव फुले से लेकर बाबासाहेब आंबेडकर तक भारत में ब्रिटिश राज को दलितों के दृष्टिकोण से मुक्तिदायी मानते हैं. उनका मानना है कि अंग्रेजी राज ने आकर जिस राजनीतिक व्यवस्था को उखाड़ फेंका उसका मूल आधार ब्राह्मणवादी था.

हालांकि भारत में अंग्रेजी राज के ‘अच्छे’ प्रभाव की यह व्याख्या कई महत्वपूर्ण तथ्यों को सिरे से नजरअंदाज करती है. विषय की गहराई में जाए बिना एक बात का उल्लेख करना यहां जरूरी है.

विलियम डिग्बी और माइक डेविस के शोध बताते हैं कि अंग्रेजी राज से पहले के इतिहास के उलट गुलाम भारत के दो सौ सालों के दौरान अकाल और भुखमरी की वजह से करोड़ों लोग असमय मौत के मुंह में समा गए.

अमर्त्य सेन की मानें तो अकाल पर होने वाली मौतों की वजह अनाज खरीद पाने की सामर्थ्य का न होना था. तो क्या यह पूछा जा सकता है कि इस ‘भले’ अंग्रेजी साम्राज्य में मरने वाले ये गरीब और फटेहाल लोग दलित और कमजोर तबकों से नहीं थे तो भला और कौन थे?

यानी दलित अस्मिता की राजनीति के लिए जो ब्रिटिश राज ‘भला’ था, आम दलितों के लिए वही मौत का कहर बनकर बरपा था.

बहरहाल, दलितों की सामाजिक दशा ब्राह्मणवादी रूढ़ियों की वजह से जितनी खराब थी उस हालत में ऐसी किसी भी व्याख्या को या तो विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया जा सकता है या अति विनम्रतापूर्वक तर्क से चुनौती दी जा सकती है.

लेकिन पिछले कुछ दिनों में जितनी तेजी से कॉरपोरेट मीडिया ने भीमा-कोरेगांव के मुद्दे को राष्ट्रवाद और राष्ट्रद्रोह से जोड़ दिया है, वो बहुत दिलचस्प है. कहा जा रहा है कि कोरेगांव में इकट्ठी हुई भीड़ अंग्रेजों की जीत का जश्न मना रही थी इसलिए उन पर हमला हुआ.

सवाल उठता है कि क्या इस लड़ाई में पेशवा और मराठे ‘विदेशी’ अंग्रेजों के खिलाफ ‘देश’ को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे? अगर ऐसा नहीं था तब आज कोरेगांव को याद करने वाले किस आधार पर ‘देशद्रोही’ सिद्ध किए जा रहे हैं?

यह हास्यास्पद है कि 1925 में संगठन बनाकर भी जिनका आजादी की लड़ाई से कोई रिश्ता नहीं रहा, 1818 के एक युद्ध में अंग्रेजों की जीत के तथाकथित जश्न का दर्द भी सबसे ज्यादा उन्हीं को हो रहा है.

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में राजनीतिक रूप से भारतीय राष्ट्र जैसी कोई चीज मौजूद ही नहीं थी. मराठे किसी भारतीय राष्ट्र के लिए नहीं बल्कि अपना क्षेत्रीय राज्य को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे. उस समय का भारत राजनीतिक रूप से कई छोटे- बड़े राज्यों में बंटा था जो आपस में प्रभुत्व के लिए लगातार लड़ते रहते थे.

आज जो प्रवक्ता टीवी चैनल्स पर बैठकर इस समारोह के आयोजकों को राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर रहे हैं वो यह क्यों छुपा ले जाते हैं कि न जाने कितनी बार मराठों ने भी अंग्रेजों के साथ मिलकर अन्य राज्यों के खिलाफ लड़ाइयां लड़ी हैं.

अभी कितने ही दिन बीते होंगे जब यही लोग अंग्रेजों के विरुद्ध अनवरत लड़ने वाले टीपू सुल्तान को देशद्रोही ठहराने के लिए गले फाड़कर चीख रहे थे. जबकि इन्हीं मराठों ने अंग्रेजों से मिलकर टीपू सुल्तान और उनके पिता हैदर अली के विरुद्ध अनेकों लड़ाइयां लड़ी थीं. जबकि उस समय शायद एक अकेले हैदर अली और टीपू सुल्तान ही थे जिन्होंने अंग्रेजी राज के खतरे को पहचानते हुए उनके साथ कभी समझौता नहीं किया.

वैसे भी गुलामों को मालिक की नहीं, अपनी आजादी की लड़ाई लड़नी चाहिए. 1818 के कोरेगांव युद्ध में पेशवा की सेनाओं के खिलाफ महारों ने ठीक यही किया था. अपने ही समाज में गले में मटका और कमर में झाड़ू बांधने को मजबूर महारों का भला कौन-सा राष्ट्र हो सकता था जिसको बचाने के लिए लड़ना उनका धर्म था?

जिस तरह कुछ हिंदूवादी संगठनों ने भीमा-कोरेगांव में इकठ्ठा भीड़ पर हमले किये, वो निश्चित ही देश में प्रतिक्रियावाद के हमलों की और कड़ी है. आरएसएस जैसे संगठनों ने हाल के दिनों में दो प्रवृत्तियों को आम बना दिया है-एक इतिहास के मुद्दों को सड़कों पर सुलझाना और दूसरा, अपने से असहमत लोगों पर हिंसक जानलेवा हमले करना.

इन हमलों के बाद से इस संघर्ष को पूरी तरह दलित बनाम मराठा संघर्ष के तौर पर प्रचारित करने की योजना है.

दरअसल हिंदू सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाले लोग ही भारतीय संविधान को बदलने और उसकी जगह मनुस्मृति लागू करने की बात करते हैं. यानी सांप्रदायिकता और जातिवाद का गठजोड़ मिलकर देश को कई स्तरों पर विभाजित करना चाहता है.

इस खतरे का मुकाबला करने की रणनीति अस्मितावादी राजनीति के पास नहीं है, यह पिछले कुछ सालों में सिद्ध हो चुका है. कहा जाता रहा है कि दलित-पिछड़ा-मुस्लिम गठजोड़ बनाकर आरएसएस राजनीति के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ा जा सकता है.

लेकिन मुस्लिम जो कि आरएसएस के सीधे निशाने पर होने की वजह से उसके स्वाभाविक विरोधी हैं, को छोड़कर बाकी दोनों वर्गों का सामाजिक आधार सांप्रदायिक योजना के झंडे तले बड़ी आराम से गोलबंद किया जा चुका है.

कहने का अर्थ है कि जाति की लाइन पर अगर समाज में किसी तरह का ध्रुवीकरण होता है तो उसका फायदा निश्चित ही आरएसएस-भाजपा को होगा. क्योंकि उसके पास हर वर्ग, समुदाय और जाति को समेटने वाला हिंदुत्व का ग्रैंड प्रोजेक्ट है.

इसका मुकाबला किसी भी हालत में सामाजिक बंटवारे की राजनीति से नहीं हो सकता, यह बात अस्मितावादी राजनीति को आज नहीं तो कल समझनी होगी.

ईस्ट इंडिया कंपनी ने अठारहवीं सदी में भारतीय समाज की आपसी फूट का फायदा उठाया था. इसीलिए न सिर्फ विभिन्न धर्मों बल्कि विभिन्न समुदायों को भी चिन्हित करके उसने उन्हें आपस में एक-दूसरे से लड़ाने की नीति अपनाई.

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एंग्लो-मराठा युद्ध (फोटो: विकीपीडिया)

आजादी की लड़ाई ने तकरीबन सौ साल मेहनत करके भारतीयता को हर देशवासी की प्राथमिक पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की थी. भले ही हर भारतीय एक ही समय में कई तरह की द्वितीयक पहचानों को साथ लेकर चलता रहता है.

हमारे राष्ट्रीय नेतृत्व ने यह समझ लिया था कि अंग्रेजी राज से मुकाबला करने के लिए एक साझा राष्ट्रवाद की जरूरत थी जो सबको एक सामान्य आधार पर जोड़ता हो.

आजादी की लड़ाई के बाद न सिर्फ गांधी-नेहरु आदि नेताओं ने बल्कि खुद डॉ आंबेडकर ने सामाजिक न्याय की लड़ाई को बड़ी खूबसूरती से साझा राष्ट्रवादी पहचान का हिस्सा बना दिया था.

पिछले काफी समय से हम लगातार पुरानी बीमारियों की ओर फिर से लौट रहे हैं. समाज को सांप्रदायिक और जातिगत खंडों-उपखंडों में बांटकर एक-दूसरे के सामने खड़े कर देने से कहीं हम फिर उसी दौर में वापस न चले जाएं जहां से यहां तक आने में हमें डेढ़ सौ साल लगे हैं. अगर ऐसा हुआ तो हमें बाहरी दुश्मनों की कोई जरूरत ही नहीं रह जायेगी. हमारे पतन के लिए हमारे आपसी संघर्ष ही बहुत होंगे.

भारत जैसे देश में जहां का राजनीतिक-सामाजिक तानाबाना बेहद जटिल है, आपसी वाद-विवाद और मत-मतान्तर स्वाभाविक हैं. लेकिन इतिहास की इन गुत्थियों को अगर खुले दिमाग से सुलझाने की कोशिश हो तो ही हम सबकी बेहतरी है.

खुलेआम मारपीट, हिंसा और संघर्ष का सहारा लेकर अतीत के बदले वर्तमान में चुकाने से तो जाने कितने संघर्ष आपसी खून-खराबे में बदल जायेंगे.

अपनी गलती स्वीकार करने और माफ कर देने का चलन आज खत्म हो चला है. वरना बेहतर तो यह होता कि एक समय महारों के साथ दुर्व्यवहार करने वाली जाति के लोग उनसे अपने पुरखों द्वारा किये गए बुरे व्यवहार के लिए माफी मांग लेते.

यह कहते कि उनके पूर्वजों से जाति के आधार पर दलितों के साथ जो अमानवीयताएं हुई हैं, उनके लिए वो शर्मिंदा हैं और प्रायश्चित करने को तैयार हैं.

क्या ही गजब होता कि इसके बाद दलित राजनीति के नेता सार्वजनिक रूप से अतीत की हार-जीत को भुलाकर मराठों और पेशवाओं को माफ कर देते. उन्हें बताते कि दलित अब समाज में किसी तरह की ऊंच-नीच और भेदभाव को कायम नहीं रहने देंगे.

और यह भी बताते कि हजारों सालों से बंधी गुलामी की बेड़ियां तोड़ने के लिए सबको मिलकर क्या करना और क्या नहीं करना होगा. यह निरा आदर्शवाद नहीं है. लोकतांत्रिक ढंग से जनचेतना के निर्माण की प्रक्रिया जिनको मालूम है वो जानते हैं कि इस बात का क्या महत्त्व है.

अंतोनियो ग्राम्शी समझाते हैं कि जनता तब तक राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं होती जब तक वो राजनीतिक विचारधाराओं में बांधी नहीं जाती है.

याद रखिये बात-बात में आस्तीनें चढ़ाने से एक दिन आयेगा जब पूरे देश में लोग हथियार लेकर सड़क पर मसले सुलझाने लगेंगे. जिन्हें गृह युद्ध की सफाई के बाद तानाशाह का उदय नजर आता है उनकी बांछें खिल जायेंगी और देश में राजनीतिक मुद्दों के हिंसक समाधान की संस्कृति बनाकर लोकतंत्र का मर्सिया फिर ठाठ से पढ़ा जाएगा.

(लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं.)

http://thewirehindi.com/30698/history-bhima-koregaon-violence-maharashtra-dalit/, ७ जनवरी २०१८. 

6 जनवरी 2018

जिन क्रांतिकारियों के सहारे संघ गांधी पर निशाना साधता है, वे आरएसएस कैंप से नहीं आये थे

सौरभ बाजपेयी 29/11/2017

आरएसएस अगर आज़ादी की लड़ाई के बारे में बात करे तो वो क्या बताएगा? अगर वो सावरकर के बारे में बताएगा तो अंग्रेजों को लिखे गए सावरकर के माफ़ीनामे सामने आ जाते हैं.

mahatma gandhi dandimemorial.in
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(फोटो साभार: dandimemorial.in)

एक बार अमर्त्य सेन ने एक बड़े पते की बात कही थी, ‘जब मैं किसी एक चीज के बारे में बात कर रहा होता हूं तो उस वक्त दूसरी चीजों के बारे में बात नहीं कर रहा होता.’

यानी अगर कोई किसी गीत में गांधीजी के बारे में बात कर रहा है तो जाहिर है वो उस समय क्रांतिकारियों के बारे में बात नहीं कर रहा. संभव है वही व्यक्ति जब क्रांतिकारियों के बारे में बात कर रहा हो तो उस समय गांधी की बात न करे.

यह बात समझने में उन लोगों को दिक्कत होती है जिनके पास तर्कों की कमी है और कुतर्क ही जिनका सहारा हैं.

बात-बात में पूछने वाले कि ‘आप तब कहां थे’ या ‘आप उनके बारे में क्यों नहीं बोलते’ एक खास बौद्धिक फैक्ट्री के उत्पाद हैं. ये वो लोग हैं जो बौद्धिक विमर्श की अपनी दरिद्रता को छुपाने के लिए विमर्श को भटकाने की रणनीति अपनाते हैं.

उनकी स्थिति तब और दयनीय हो जाती है जब उनका अपना इतिहास किसी को बताने लायक नहीं होता.

आरएसएस अगर आज़ादी की लड़ाई के बारे में बात करे तो वो क्या बताएगा? अगर वो सावरकर के बारे में बताएगा तो अंग्रेजों को लिखे गए सावरकर के माफीनामे सामने आ जाते हैं.

अगर किसी को गांधी की हत्या ‘वध’ न लगती हो तो वो भी सावरकर पर लानत ही भेजेगा. भले ही अपनी जिंदगी के पहले कुछ साल तक वो वीर रहे हों, बाद के सालों में उन्होंने भीरुता और गद्दारी के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए.

तो इस तरह आरएसएस की राजनीति के महानायक ‘वीर’ सावरकर भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महान क्रांतिकारियों के सामने महज अंग्रेजों के चाटुकार-भर रह जाते हैं.

फांसी की सजा का इंतजार करते हुए फख्र से जिन शहीदों का वजन बढ़ जाता हो, उनके सामने उस व्यक्ति की क्या बिसात जो महज जेल जाने से इस कदर टूट गया कि अंग्रेजों का पिट्ठू बन बैठा. हिंदू महासभा से उधार लिए इन्हीं सावरकर के अलावा आरएसएस के पास ऐसा कुछ नहीं है जिसे वो ‘अपना’ कह सकें.

कई बार लोग आपत्ति करते हैं कि आज़ादी की लड़ाई की विरासत पर सबका बराबर का अधिकार है. लेकिन क्या उनका भी उतना ही अधिकार है जो 1925 से संगठन चलाते हुए 22 साल तक लोगों को समझाते रहे कि अंग्रेज नहीं मुसलमान, कम्युनिस्ट और ईसाई उनके सबसे बड़े दुश्मन हैं?

बहरहाल, अगर हरियाणा के मंत्री अनिल विज और कैलाश विजयवर्गीज सरीखे लोगों को लगता है कि कवि प्रदीप ने ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल’ लिखकर क्रांतिकारियों का अपमान किया था तो लगे हाथ हम भी पूछ सकते हैं कि जब क्रांतिकारी हंसते-हंसते फांसी के फंदे चूम रहे थे, तब आप कहां थे?

रह-रहकर क्रांतिकारियों और हिंसा के प्रति उमड़ रहे इनके प्रेम की पड़ताल बहुत जरूरी है.

भगत सिंह क्रांतिकारी परंपरा के सबसे प्रबुद्ध चिंतक हैं. वो शायद नेहरू के अलावा दूसरे ऐसे स्वाधीनता सेनानी थे जो सांप्रदायिकता को वैज्ञानिक ढंग से समझने की कोशिश कर रहे थे. भले ही आरएसएस भगत सिंह को सरदार बनाकर उन्हें अपनाने की लाख कोशिश कर ले, भगत सिंह के विचार उसके धुर विरोधी हैं.

भगत सिंह गांधीजी की भारतीय राजनीति में सकारात्मक भूमिकाओं को पहचानते हुए उनकी बौद्धिक आलोचना करते थे. लेकिन वो यह कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि कोई गांधी हत्या की बात तक जुबान पर लाये.

यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि लाला लाजपतराय के साथ अपने लाख मतभेदों के बावजूद भगत सिंह और उनके साथी उनके ऊपर हुए बर्बर लाठीचार्ज का बदला लेने निकल पड़े थे.

उन्होंने ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ नामक लेख में साफ लिखा है कि लोगों को आपस में बांटने वाले संकीर्ण सांप्रदायिक विचार से बचाना और उसकी जगह साझा राष्ट्रवाद की भावना को बल देना जरूरी है.

सनद रहे कि भगत सिंह ने अपने प्रसिद्ध निबंध ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ में धर्म और ईश्वर की सत्ता को सिरे से ही नकार दिया था. जबकि दूसरी तरफ आरएसएस चाहता है कि आज़ादी की लड़ाई से निकले साझा राष्ट्रवाद की जगह सांप्रदायिक हिंदुत्व ही भारतीय राष्ट्र का एकमात्र दर्शन बन जाए.

हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सुप्रीम कमांडर चंद्रशेखर आज़ाद को तो एक बार सावरकर ने संदेश भिजवाया था कि क्रांतिकारियों को अंग्रेजों से लड़ना बंद करके जिन्ना और मुसलमानों की हत्या करनी चाहिए.

यशपाल ने अपनी किताब ‘सिंहावलोकन’ में लिखा है कि इस पर आज़ाद ने उनके दिए पचास हजार रुपये यह कहकर ठुकरा दिए थे कि ‘यह हम लोगों को भाड़े का हत्यारा समझता है. अंग्रेजों से मिला हुआ है. हमारी लड़ाई अंग्रेजों से है… मुसलमानों को हम क्यों मारेंगे? मना कर दो… नहीं चाहिए इसका पैसा’.

आज़ाद ने अपने एक कनिष्ठ साथी, जो कि हिंदू राष्ट्र के जुमलों से थोड़ा प्रभावित हो गया था, से स्पष्ट शब्दों में कहा था-

‘हे भगत! तेरी ये हिंदू राजतंत्र की कल्पना देश को बहुत बड़े खतरे में डालने वाली है… कुछ मुसलमान भी ऐसा ही स्वप्न देखते हैं. लेकिन यह तो पुराने शाही घरानों के हिंदुओं और मुसलमानों की खब्त है. हमें तो फ्रंटियर से लेकर बर्मा तक और नेपाल से लेकर कराची तक के हर हिंदुस्तानी को साथ लेकर एक तगड़ी सरकार बनानी है.’

पृथ्वीसिंह आज़ाद क्रांतिकारी गदर पार्टी के संस्थापक सदस्यों में एक थे. उनके साहस और वीरता के किस्से देश भर में मशहूर थे. हिंसा और क्रांतिकारी साधनों में पूरे यकीन के बावजूद पृथ्वीसिंह गांधीजी को पितातुल्य मानते थे. एक बार उन्हें जानकारी मिली कि दो रजाकार गांधीजी की हत्या करने के उद्देश्य से भेजे गए हैं तो वो उन्हें बचाने आ गए.

लेकिन जब गांधीजी को इस बात का पता चला तो पृथ्वीसिंह बोले कि उनके रहते कोई गांधीजी का बाल भी बांका नहीं कर सकता. लेकिन गांधीजी ने जब पलटकर सवाल किया कि उनके रहते अगर पृथ्वीसिंह को कुछ हो गया तो वो क्या जवाब देंगे. यह सवाल सुनकर पृथ्वीसिंह सहित सभी आश्रमवासी निरुत्तर हो गए.

‘मुसलमानों को फुफकारते यवन सांप’ मानने की विचारधारा के लोग तो रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्लाह खान के आपसी रिश्तों को समझ ही नहीं सकते. एक बार अशफाक बीमार पड़े तो अचेतन अवस्था में राम-राम कहकर कराहने लगे.

उनके परिवार वालों को यह समझ ही नहीं आया कि पांच समय का नमाजी राम-राम क्यों रट रहा है. बाद में पता चला कि वो रामप्रसाद बिस्मिल को पुकार रहे थे.

तो इस तरह क्रांतिकारी आंदोलन का पूरा नेतृत्व सांप्रदायिकता के खतरे को भली-भांति पहचानता था. बल्कि न सिर्फ पहचानता था, उससे लड़ने की प्रतिबद्धता भी रखता था.

भूलने नहीं देना है कि गुलाम भारत में इस सांप्रदायिक धारा की सबसे बड़ी प्रतिनिधि मुस्लिम लीग थी और दूसरी तरफ से उसका साथ देने के लिए हिंदू महासभा और आरएसएस मौजूद थे.

इस तरह ये तो साफ है कि जिन क्रांतिकारियों का सहारा लेकर आरएसएस-भाजपा से जुड़े लोग बार-बार गांधीजी पर निशाना साधते हैं, वो कोई आरएसएस के ओटीसी कैंप से निकलकर नहीं आये थे.

आरएसएस तो उस समय अपने प्रशिक्षण शिविरों में भविष्य में मुसलमानों के खिलाफ होने वाले किसी संभावित गृहयुद्ध की तैयारियों में लगी थी.

अपने विचारधारा के भीतर छिपी हिंसा को सही ठहराने के लिए वो क्रांतिकारियों की हिंसा को जायज ठहराते हैं तो इसी बहाने गांधी की अहिंसा को कायरता बताते हैं. अगर सिर्फ हिंसा की बात करें तो भी हिंसा-हिंसा में फर्क होता है. अंग्रेजी राज के दमन और शोषण से ऊबकर जिन क्रांतिकारियों ने हिंसा का सहारा लिया उनके दिल में मानवता के प्रति एक तड़प थी.

सांडर्स की हत्या के बाद लाहौर की गलियों में क्रांतिकारियों द्वारा लगाये गए पोस्टर याद करिए. उनकी हिंसा के भीतर छिपा गहन मानवतावाद साफ दिखता था.

कोई सोच सकता है कि चंद्रशेखर आज़ाद ने कई दिन प्रयास करने के बावजूद एक मंदिर में सिर्फ इसलिए डकैती नहीं डाली क्योंकि उसमें बेवजह का खून-खराबा हो सकता था. या कि बहरे कानों को सुनाने के लिए असेम्बली में बम सिर्फ उस जगह फेंका गया जहां कोई व्यक्ति मौजूद न हो.

याद रखना चाहिए कि भगत सिंह सहित सभी क्रांतिकारी अपने जीवन के बहुत शुरूआती दिनों में व्यक्तिगत हिंसक कार्यवाहियों में यकीन करते थे. लेकिन परिपक्व होने के साथ ही उन्होंने इस तरीके की सीमाएं भी समझ ली थीं जो कि ‘क्रांतिकारी कार्यक्रम के मसौदे’ से एकदम स्पष्ट हो जाता है.

ये क्रांतिकारी नौजवान पकी दाढ़ी की उम्र में एक निहत्थे अहिंसक बूढ़े की हत्या के लिए हिंसा को उकसाने वाले फिलॉसफर नहीं थे. हिंसा उनके लिए सामाजिक परिवर्तन का माध्यम हो सकता था, निर्दोषों और निहत्थों की हत्या का साधन नहीं.

यह सब छोड़ भी दें तो क्या कोई तथाकथित संघ विचारक क्रांतिकारी साहित्य से कोई एक छोटा पुर्जा भी दिखा सकता है जिसमें गांधीजी की हत्या की योजना शामिल हो?

अगर नहीं तो 1930 के दशक से ही वो कौन लोग थे जो गांधीजी की हत्या को ही राष्ट्र की सबसे बड़ी सेवा मान बैठे थे?

यह तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है जो भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु और सुखदेव आदि लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए अपनी जान न्योछावर कर देते हैं, वो गांधीजी की हत्या होने पर क्या करते?

(लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं.)

http://thewirehindi.com/26587/sabarmati-ke-sant-mahatma-gandhi-rss-hate-speech/, 7 जनवरी २०१८. 

स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति

लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिस...