26 अक्टूबर 2016

राष्ट्रीयता

गणेश शंकर विद्यार्थी 

[स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कानपुर में भड़के हिन्दू-मुस्लिम दंगों को शांत कराते हुए शहीद हुए लेखक-पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की आज (26 अक्टूबर) जयंती है. इस मौके पर ‘राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट’ उन्हें याद करते हुए 25 जून 1915 को साप्ताहिक ‘प्रताप’ में ‘राष्ट्रीयता’ शीर्षक से छपा उनका लेख ‘स्वाधीन’ के पाठकों के लिए पेश कर रहा है. इस समय देश में राष्ट्र प्रेम चर्चा में भी है, ऐसे में विद्यार्थी जी का यह लेख पढ़ा जाना चाहिए.]



देश में कहीं-कहीं राष्‍ट्रीयता के भाव को समझने में गहरी और भद्दी भूल की जा रही है। आये दिन हम इस भूल के अनेकों प्रमाण पाते हैं। यदि इस भाव के अर्थ भली-भाँति समझ लिये गये होते तो इस विषय में बहुत-सी अनर्गल और अस्‍पष्‍ट बातें सुनने में न आतीं। राष्‍ट्रीयता जातीयता नहीं है। राष्‍ट्रीयता धार्मिक सिद्धांतों का दायरा नहीं है। राष्‍ट्रीयता सामाजिक बंधनों का घेरा नहीं है। राष्‍ट्रीयता का जन्‍म देश के स्‍वरूप से होता है। उसकी सीमाएँ देश की सीमाएँ हैं। प्राकृतिक विशेषता और भिन्‍नता देश को संसार से अलग और स्‍पष्‍ट करती है और उसके निवासियों को एक विशेष बंधन-किसी सादृश्‍य के बंधन-से बाँधती है। राष्‍ट्र पराधीनता के पालने में नहीं पलता। स्‍वाधीन देश ही राष्‍टों की भूमि है, क्‍योंकि पुच्‍छ-विहीन पशु हों तो हों, परंतु अपना शासन अपने हाथों में न रखने वाले राष्‍ट्र नहीं होते। राष्‍ट्रीयता का भाव मानव-उन्‍नति की एक सीढ़ी है। उसका उदय नितांत स्‍वाभाविक रीति से हुआ। योरप के देशों में यह सबसे पहले जन्‍मा। मनुष्‍य उसी समय तक मनुष्‍य है, जब तक उसकी दृष्टि के सामने कोई ऐसा ऊँचा आदर्श है, जिसके लिए वह अपने प्राण तक दे सके। समय की गति के साथ आदर्शों में परिवर्तन हुए। धर्म के आदर्श के लिए लोगों ने जान दी और तन कटाया। परंतु संसार के भिन्‍न-भिन्‍न धर्मों के संघर्षण, एक-एक देश में अनेक धर्मों के होने तथा धार्मिक भावों की प्रधानता से देश के व्‍यापार, कला-कौशल और सभ्‍यता की उन्नति में रुकावट पड़ने से, अंत में धीरे-धीरे धर्म का पक्षपात कम हो चला और लोगों के सामने देश-प्रेम का स्‍वाभाविक आदर्श सामने आ गया। जो प्राचीन काल में धर्म के नाम पर कटते-मरते थे, आज उनकी संतति देश के नाम पर मरती है। पुराने अच्‍छे थे या ये नये, इस पर बहस करना फिजूल ही है, पर उनमें भी जीवन था और इनमें भी जीवन है। वे भी त्‍याग करना जानते थे और ये भी और ये दोनों उन अभागों से लाख दर्जे अच्‍छे और सौभाग्‍यवान हैं जिनके सामने कोई आदर्श नहीं और जो हर बात में मौत से डरते हैं। ये पिछले आदमी अपने देश के बोझ और अपनी माता की कोख के कलंक हैं।

देश-प्रेम का भाव इंग्‍लैंड में उस समय उदय हो चुका था, जब स्‍पेन के कैथोलिक राजा फिलिप ने इंग्‍लैंड पर अजेय जहाजी बेड़े आरमेड़ा द्वारा चढ़ाई की थी, क्‍योंकि इंग्‍लैंड के कैथोलिक और प्रोटेस्‍टेंट, दोनों प्रकार के ईसाइयों ने देश के शत्रु का एक-सा स्‍वागत किया। फ्रांस की राज्‍यक्रांति ने राष्‍ट्रीयता को पूरे वैभव से खिला दिया। इस प्रकाशमान रूप को देखकर गिरे हुए देशों को आशा का मधुर संदेश मिला। 19वीं शताब्‍दी राष्‍ट्रीयता की शताब्‍दी थी। वर्तमान जर्मनी का उदय इसी शताब्‍दी में हुआ। पराधीन इटली ने स्‍वेच्‍छाचारी आस्ट्रिया के बंधनों से मुक्ति पाई। यूनान को स्‍वाधीनता मिली और बालकन के अन्‍य राष्‍ट्र भी कब्रों से सिर निकाल कर उठ पड़े। गिरे हुए पूर्व ने भी अपनी विभूति दिखाई। बाहर वाले उसे दोनों हाथों से लूट रहे थे। उसे चैतन्‍यता प्राप्‍त हुई। उसने अँगड़ाई ली और चोरों के कान खड़े हो गये। उसने संसार की गति की ओर दृष्टि फेरी। देखा, संसार को एक नया प्रकाश मिल गया है और जाना कि स्‍वार्थपरायणता के इस अंधकार को बिना उस प्रकाश के पार करना असंभव है। उसके मन में हिलोरें उठीं और अब हम उन हिलोरों के रत्‍न देख रहे हैं। जापान एक रत्‍न है - ऐसा चमकता हुआ कि राष्‍ट्रीयता उसे कहीं भी पेश कर सकती है। लहर रुकी नहीं। बढ़ी और खूब बढ़ी। अफीमची चीन को उसने जगाया और पराधीन भारत को उसने चेताया। फारस में उसने जागृति फैलाई और एशिया के जंगलों और खोहों तक में राष्‍ट्रीयता की प्रतिध्‍वनि इस समय किसी न किसी रूप में उसने पहुँचाई। यह संसार की लहर है। इसे रोका नहीं जा सकता। वे स्‍वेच्‍छाचारी अपने हाथ तोड़ लेंगे - जो उसे रोकेंगे और उन मुर्दों की खाक का भी पता नहीं लगेगा - जो इसके संदेश को नहीं सुनेंगे। भारत में हम राष्‍ट्रीयता की पुकार सुन चुके हैं। हमें भारत के उच्‍च और उज्‍ज्‍वल भविष्‍य का विश्‍वास है। हमें विश्‍वास है कि हमारी बाढ़ किसी के रोके नहीं रुक सकती। रास्‍ते में रोकने वाली चट्टानें आ सकती हैं। बिना चट्टानें पानी की किसी बाढ़ को नहीं रोक सकतीं, परंतु एक बात है, हमें जान-बूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए। ऊटपटाँग रास्‍ते नहीं नापने चाहिए।

कुछ लोग 'हिंदू राष्‍ट्र' - 'हिंदू राष्‍ट्र' चिल्‍लाते हैं। हमें क्षमा किया जाय, यदि हम कहें-नहीं, हम इस बात पर जोर दें - कि वे एक बड़ी भारी भूल कर रहे हैं और उन्‍होंने अभी तक 'राष्‍ट्र' शब्‍द के अर्थ ही नहीं समझे। हम भविष्‍यवक्‍ता नहीं, पर अवस्‍था हमसे कहती है कि अब संसार में 'हिंदू राष्‍ट्र' नहीं हो सकता, क्‍योंकि राष्‍ट्र का होना उसी समय संभव है, जब देश का शासन देशवालों के हाथ में हो और यदि मान लिया जाय कि आज भारत स्‍वाधीन हो जाये, या इंग्‍लैंड उसे औपनिवेशिक स्‍वराज्‍य दे दे, तो भी हिंदू ही भारतीय राष्‍ट्र के सब कुछ न होंगे और जो ऐसा समझते हैं - हृदय से या केवल लोगों को प्रसन्‍न करने के लिए - वे भूल कर रहे हैं और देश को हानि पहुँचा रहे हैं। वे लोग भी इसी प्रकार की भूलकर रहे हैं जो टर्की या काबुल, मक्‍का या जेद्दा का स्‍वप्‍न देखते हैं, क्‍योंकि वे उनकी जन्‍मभूमि नहीं और इसमें कुछ भी कटुता न समझी जानी चाहिए, यदि हम य‍ह कहें कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और उनके मर्सिये - यदि वे इस योग्‍य होंगे तो - इसी देश में गाये जाएँगे, परंतु हमारा प्रतिपक्षी, नहीं, राष्‍ट्रीयता का विपक्षी मुँह बिचका कर कह सकता है कि राष्‍ट्रीयता स्‍वार्थों की खान है। देख लो इस महायुद्ध को और इंकार करने का साहस करो कि संसार के राष्‍ट्र पक्‍के स्‍वार्थी नहीं है? हम इस विपक्षी का स्‍वागत करते हैं, परंतु संसार की किस वस्‍तु में बुराई और भलाई दोनों बातें नहीं हैं? लोहे से डॉक्‍टर का घाव चीरने वाला चाकू और रेल की पटरियाँ बनती हैं और इसी लोहे से हत्‍यारे का छुरा और लड़ाई की तोपें भी बनती हैं। सूर्य का प्रकाश फूलों को रंग-बिरंगा बनाता है पर वह बेचारा मुर्दा लाश का क्‍या करें, जो उसके लगते ही सड़कर बदबू देने लगती है। हम राष्‍ट्रीयता के अनुयायी हैं, पर वही हमारी सब कुछ नहीं, वह केवल हमारे देश की उन्‍नति का उपाय-भर है।

21 अक्टूबर 2016

मार्टिन लूथर किंग की विचार-यात्रा

शुभनीत कौशिक

मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने सितंबर 1958 में महात्मा गांधी, अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत के प्रति अपने लगाव और जुड़ाव की विस्तार से चर्चा करते हुए एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था: “माई पिलग्रिमेज टू नॉन-वायलेंस”। यह लेख फ़ेलोशिप पत्रिका के 1 सितंबर 1958 के अंक में छपा। इस लेख में मार्टिन लूथर किंग ने महात्मा गांधी के अतिरिक्त कार्ल मार्क्स, नित्शे और राईनहोल्ड नीबूर सरीखे विचारकों के चिंतन की गहराई से समीक्षा की। और विचारों की उपयोगिता की समीक्षा के इस क्रम में, अहिंसा और सत्याग्रह के रास्ते को सर्वाधिक योग्य रास्ता पाया।


इस लेख का आरंभ, मार्टिन लूथर किंग अटलांटा में बिताए अपने बचपन से करते हैं, जहाँ उन्होंने अपनी आँखों से अश्वेतों पर हो रहे अमानवीय व्यवहार को देखा और कु-क्लक्स-क्लैन सरीखे घोर नस्लवादी संगठन द्वारा अश्वेतों पर किए जा रहे बर्बर अत्याचारों के साक्षी बने। वे लिखते हैं कि ‘एक वक़्त ऐसा भी आया जब मैं सभी गोरों के प्रति द्वेषभाव रखने के करीब जा पहुँचा था’। अपनी युवावस्था में, उन्होंने कुछ ऐसी जगहों पर काम किया जहाँ गोरे और काले दोनों ही समुदायों के लोग काम करते थे और जहाँ किंग ने आर्थिक अन्याय को बेहद करीब से देखा और समझा। उस दौरान ही किंग को इस बात का एहसास हुआ कि गरीब गोरे भी उतने ही शोषित हैं, जितने कि काले लोग। इस तरह, जब 1944 में किंग का दाख़िला अटलांटा के मोरहाउस कॉलेज में हुआ तो वे नस्ली और आर्थिक भेद-भाव को लेकर जागरूक हो चले थे। अपने कॉलेज के दिनों में ही किंग ने पहली बार विचारक हेनरी डेविड थोरो (1817-1962) की किताब “एस्से ऑन सिविल डिसओबिडिएन्स” पढ़ी। बुरी व्यवस्था के साथ असहयोग करने का थोरो का विचार किंग को इतना भाया कि उन्होंने थोरो की यह किताब कई दफ़े पढ़ी। अहिंसात्मक प्रतिरोध के सिद्धांत से यह किंग का पहला परिचय था। 

1948 में जब किंग क्रोज़र थियोलॉजिकल सेमिनारी में दाख़िल हुए तो नस्लभेद जैसी सामाजिक बुराईयों से लड़ने और उनके उन्मूलन के लिए एक कारगर पद्धति की उनकी वैचारिक तलाश शुरू हुई। इसी दौरान, किंग ने वाल्टर रौशेन्बुश की किताब “क्रिश्चियानिटी एंड द सोशल क्राइसिस” पढ़ी, जिसने उनके चिंतन पर अमिट छाप छोड़ी। रौशेन्बुश द्वारा मानव को उसकी समग्रता में, जिसमें उसके जीवन का सामाजिक-आर्थिक पक्ष भी शामिल हो, जानने-समझने की कोशिश ने किंग को गहरे प्रभावित किया। रौशेन्बुश को पढ़ने के बाद किंग ने प्लेटो (अफलातून), अरस्तू से लेकर रूसो, हॉब्स, बेंथम, मिल और लॉक सरीखे विचारकों को पढ़ा। 

पने इस लेख में, किंग ने साम्यवाद की सीमाओं की व्याख्या की और साम्यवादी विचारधारा से अपनी असहमतियाँ भी दर्ज की। किंग मुख्यतः साम्यवादी विचारधारा की तीन प्रमुख अवधारणाओं से असहमत थे: पहला, किंग ने साम्यवादी विचारकों द्वारा की गई इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या को नकारा; दूसरा, उन्होंने साम्यवाद के ‘नैतिक मूल्यों के सापेक्ष होने’ के सिद्धांत की आलोचना की और कहा कि “सृजनात्मक साध्य होने भर से विध्वंसात्मक साधन को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि अंततः साध्य साधन में अंतर्निहित होता है”। तीसरा, किंग ने साम्यवाद की राजनीतिक सर्वसत्तावाद की धारणा की आलोचना करते हुए लिखा कि इस विचारधारा में व्यक्ति को आखिरकार राज्य के अधीन कर दिया जाता है। सिद्धांत में राज्य को कमजोर करने की बात करते हुए भी साम्यवाद राज्य को ध्येय/साध्य के रूप में देखता है और व्यक्ति उस साध्य को हासिल करने का साधन भर रह जाता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता में अपना विश्वास जताते हुए किंग ने कहा कि “मनुष्य राज्य के लिए नहीं बने हैं, बल्कि राज्य मनुष्यों के लिए बने हैं। मानव-जाति को कभी भी राज्य के ध्येय को हासिल करने वाले साधन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए वरन मानव-जाति को ख़ुद एक ध्येय/साध्य के रूप में समझा जाना चाहिए”। पर इन असहमतियों के बावजूद किंग ने स्वीकार किया कि मार्क्स को पढ़कर वे सामाजिक न्याय के जरूरी सवाल को लेकर अधिक जागरूक हुए। जहाँ अपनी युवावस्था में ही किंग समाज में दिखाई देने वाले आर्थिक भेदभाव और गरीबों और अमीरों के बीच फर्क को समझने लगे थे, वहीं मार्क्स को पढ़ते हुए उनकी यह समझ और परिपक्व हुई। किंग ने यह भी लिखा कि ऐतिहासिक रूप से, जहाँ एक ओर पूंजीवाद ने सामूहिक उद्यम की सच्चाई और महत्त्व को नहीं समझा, वहीं दूसरी ओर मार्क्सवाद ने व्यक्तिगत उद्यम की प्रासंगिकता को नहीं समझा।                       

क्रोज़र सेमिनारी के अपने दिनों में ही मार्टिन लूथर किंग ने ए.जे. मुस्टे सरीखे शांतिवादी विचारकों के व्याख्यान सुने और साथ ही, ‘द जिनियालॉजी ऑफ मॉरल्स’ और ‘द विल टू पावर’ सरीखी किताबें लिखने वाले दार्शनिक नित्शे (1844-1900) के विचारों को भी पढ़ा। इसी दौरान किंग ने 1950 में फ़िलाडेल्फिया में डॉ. मोर्दकाई जॉनसन को सुना। तब डॉ. जॉनसन भारत से होकर लौटे ही थे और यह अकारण नहीं कि उन्होंने फ़िलाडेल्फिया फ़ेलोशिप हाउस में दिये अपने भाषण में महात्मा गांधी के जीवन और दर्शन की चर्चा की। डॉ. जॉनसन के वक्तव्य से किंग इतने प्रभावित हुए कि व्याख्यान से छूटते ही उन्होंने गांधी पर लिखी गई कई किताबें खरीद लीं और उन्हें पढ़ना शुरू किया। किंग ने लिखा है कि वे गांधी के अहिंसात्मक प्रतिरोध के सिद्धांत से बहुत प्रभावित हुए; ख़ासकर नमक सत्याग्रह और गांधी द्वारा किए गए अनेक उपवासों से। ‘सत्याग्रह’ के सिद्धांत की चर्चा करते हुए मार्टिन लूथर किंग ने ठीक ही लिखा है कि सत्याग्रह प्रेम के बल पर सत्य के बल पर आधारित है। गांधी को और गहराई से पढ़ते हुए किंग को सामाजिक सुधार के क्षेत्र में सत्याग्रह के सिद्धांत की अहमियत का एहसास हुआ। 

अपनी साफ़गोई के लिए जाने जाने वाले किंग ने लिखा है कि गांधी को पढ़ने और जानने से पहले उन्हें लगता था कि यीशुमसीह के सिद्धांत महज व्यक्तिगत सम्बन्धों में ही कारगर साबित हो सकते हैं। किंग के अनुसार गांधी वह पहले शख्स थे जिन्होंने यीशु के प्रेम के सिद्धांतों और मूल्यों को व्यक्तिगत सम्बन्धों के स्तर से उठाकर एक व्यापक पैमाने पर एक बड़ी ही प्रभावी और शक्तिशाली सामाजिक शक्ति में तब्दील कर दिया। और फिर किंग ने पाया कि सामाजिक सुधार के लिए वह जिस प्रभावी पद्धति की तलाश कर रहे थे, वह असल में, गांधी की प्रेम और अहिंसा की पद्धति ही हो सकती है। किंग की आत्म-स्वीकृति है कि “जो बौद्धिक और नैतिक संतोष उन्हें बेंथम और मिल के उपयोगितावादी सिद्धांतों में नहीं मिला, न ही मार्क्स और लेनिन के क्रांतिकारी चिंतन में, न ही हॉब्स, रूसो और नित्शे सरीखे विचारकों में, वह संतुष्टि उन्हें गांधी के अहिंसात्मक प्रतिरोध के दर्शन में मिली”। धीरे-धीरे किंग को इस बात में पुख्ता यकीन होता गया कि गांधी का अहिंसात्मक सत्याग्रह ही शोषित वर्ग के लोगों की स्वतन्त्रता-संघर्ष में काम आने वाला एकमात्र नैतिक और व्यावहारिक सिद्धांत है। 

क्रोज़र सेमिनारी के आखिरी वर्षों में मार्टिन लूथर किंग का साक्षात्कार राईनहोल्ड नीबूर के विचारों से हुआ। राईनहोल्ड नीबूर ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘मॉरल मैन एंड इमोरल सोशायटी’ में यह विचार रखा कि हिंसात्मक और अहिंसात्मक प्रतिरोध में तात्विक रूप से कोई नैतिक अंतर नहीं है। नीबूर का यह भी मानना था कि अहिंसात्मक प्रतिरोध केवल उन्हीं समूहों के समक्ष कारगर साबित हो सकते हैं, जिनमें कुछ अंशों में ही सही नैतिक विवेक बचा हो। यानी नीबूर के अनुसार अहिंसात्मक प्रतिरोध एक सर्वसत्तावादी निरंकुश शासन का सफलतापूर्वक प्रतिरोध नहीं कर सकता। 

किंग ने लिखा है कि गांधी को पढ़ने के बाद उन्हें नीबूर के चिंतन की सीमाएँ स्पष्ट होने लगीं और उन्हें यह बात महसूस हुई कि नीबूर का यह मान लेना कि शांतिवाद एक तरह से बुराई के साथ निष्क्रिय अप्रतिरोध है, सिरे-से गलत है। किंग ने पाया कि शांतिवाद, बुराई के साथ अप्रतिरोध नहीं बल्कि बुराई के साथ अहिंसात्मक प्रतिरोध है। कहने की जरूरत नहीं कि इन दोनों स्थितियों में जमीन-आसमान का फर्क है। असल में, गांधी ने बुराई का उतना ही जोरदार और शक्तिशाली विरोध किया, जितना कोई हिंसक प्रतिरोधी करेगा; पर गांधी के प्रतिरोध में प्रेम का तत्व निहित है, वहाँ घृणा या द्वेष के लिए कोई जगह नहीं है।

नीबूर के चिंतन की स्पष्ट सीमाओं के बावजूद मार्टिन लूथर किंग ने नीबूर से काफी कुछ सीखा। किंग के अनुसार, नीबूर के विचारों से उन्हें मानव-प्रकृति के साथ-साथ राष्ट्रों और सामाजिक समूहों के व्यवहारों के बारे में भी अंतर्दृष्टि मिली। नीबूर के लेखन ने मनुष्य के सामाजिक जुड़ावों की जटिलता और सामूहिक बुराईयों के ज्वलंत यथार्थ से भी किंग का परिचय कराया। बोस्टन विश्वविद्यालय में दर्शन की पढ़ाई करते हुए मार्टिन लूथर किंग एग्गर एस. ब्राइटमान और एल. हेरोल्ड डीवोल्फ सरीखे शिक्षकों के सान्निध्य में आए और वहीं किंग ने प्रसिद्ध विचारक हेगेल (1770-1831) की पुस्तकों जैसे ‘फिनामनालॉजी ऑफ माइंड’, ‘फिलोसफ़ी ऑफ हिस्ट्री’ और ‘फिलोसफ़ी ऑफ राईट’ का भी अध्ययन किया। 

बोस्टन विश्वविद्यालय में अपनी शिक्षा पूरी होने तक किंग धीरे-धीरे वैचारिक परिपक्वता भी हासिल कर रहे थे और एक सकारात्मक सामाजिक दर्शन का विकास भी। उनका इस बात में दृढ़ विश्वास हो चला था कि अहिंसात्मक प्रतिरोध ही सामाजिक न्याय के लिए शोषित-वंचित वर्ग द्वारा किए जाने वाले संघर्ष के लिए एकमात्र कारगर उपाय है। किंग ने लिखा है कि उन्हें इस बात का अंदाज़ा भी नहीं था कि एक दिन वे एक ऐसे संघर्ष में भागीदार होंगे जिसमें अहिंसात्मक प्रतिरोध का प्रयोग किया जाएगा। 

किंग के अनुसार मोन्टगोमरी का प्रतिरोध न उन्होंने शुरू किया था न ही यह उनके सुझाव पर हुआ था। उन्होंने तो बस लोगों द्वारा महसूस की जा रही अपने एक प्रवक्ता की जरूरत को पूरा किया था। प्रतिरोध के बिलकुल आरंभ से अंत तक किंग को यीशुमसीह का ‘सरमन ऑन द माउंट’ और उसमें दी गई उदात्त प्रेम की शिक्षा और गांधी के अहिंसात्मक प्रतिरोध के सिद्धांत की याद बराबर बनी रही। मोन्टगोमरी के प्रतिरोध के वास्तविक अनुभवों से गुजरते हुए मार्टिन लूथर किंग ने यह पाया कि अहिंसा उनके लिए सिर्फ़ एक सिद्धांत नहीं है, जिसका वे अनुसरण कर रहे हैं, बल्कि यह उनके लिए यह एक जीवन-शैली और उसके प्रति प्रतिबद्धता का सवाल बन गया।   

स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति

लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिस...