स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय: अम्बेडकर- गाँधी विमर्श

राजमोहन गांधी
अंतिम जन, अप्रैल 2015 

यह लेख अरुंधति रॉय के "द डॉक्टर एंड द सेन्ट" का जवाब है। रॉय का यह लेख मार्च 2014 में बी० आर० अम्बेडकर की किताब अनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट, जो कि 1936 में प्रकाशित हुई थी, की भूमिका के तौर पर लिखा गया था। लेकिन रॉय का यह लेख न केवल इस किताब के नए संस्करण की भूमिका है, बल्कि इसका परोक्ष सम्बन्ध अम्बेडकर और गाँधी के बीच हुई ऐतिहासिक बहस से भी है। यह बहस एक ख़ास दौर में हुई थी। मगर उस दौर का परिप्रेक्ष्य हमारी स्मृति से बड़ी साफ़गोई से मिटा दिया गया है।

1920 के दशक में दोनों नेताओं के बीच सकारात्मक सम्बन्ध थे। हालांकि इन संबंधों की प्रकृति व्यक्तिगत नहीं थी। न ही तब तक उन दोनों के बीच कोई मुलाक़ात ही हुई थी। बावजूद इसके, अम्बेडकर ने दलितों के प्रति गाँधी की चिंताओं की सराहना की और उनके द्वारा ईजाद किये गए सत्याग्रह के तरीकों का स्वागत किया। लेकिन 1930 का दशक दोनों नेताओं के बीच तीखे बहस- मुबाहिसों का चश्मदीद बना जो कि एक इतिहासकार के दृष्टिकोण से काफी चौंकाने वाले थे।  

उनकी आमने- सामने की पहली मुलाक़ात 1931 में मुंबई में हुई थी; उनके बीच तीखी ज़ुबानी मुठभेड़ों से ठीक पहले। 1931 की सर्दियों में लन्दन के जगमगाते इलाके में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ने भारत का राजनीतिक भविष्य तय करने के लिए गोलमेज सम्मलेन बुलाया। यहीं से गांधी और अम्बेडकर के बीच जो बहसें शुरू हुईं, वो 1932 में पूना जेल की अँधेरी कोठरियों में भी जारी रहीं। अँग्रेजों ने गाँधी को इसी जेल में कैद कर रखा था। यहाँ इस जेल में दोनों नेताओं के बीच एक सफ़ल वार्ता संपन्न हुई । लेकिन 1930 के मध्य से सार्वजनिक तर्क- वितर्कों का एक नया दौर, मुख्यतः प्रेस के माध्यम से, फिर शुरू हो गया।

बहस- मुबाहिसे का यह सिलसिला गाँधी के बार- बार जेल जाने से टूटता रहा। 1922 से 1924, 1932 से 1934, और फिर 1942 से 1944 तक गांधी साम्राज्यी सलाखों के पीछे रहे। इसके विपरीत, अम्बेडकर, जो सामजिक न्याय की लड़ाई को देश की आज़ादी की लड़ाई से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण मानते थे, को अंग्रेजों ने कभी जेल में नहीं डाला। बल्कि 1942 से 1945 के बीच वे वाइसराय की एग्जीक्यूटिव काउंसिल में भी शामिल किये गए।

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गांधी और अम्बेडकर  
1945 की गर्मियों में अम्बेडकर ने अपनी किताब व्हॉट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स प्रकाशित की। इस किताब में गांधी और उनके नेतृत्व में चलाये जा रहे कांग्रेस आंदोलन पर जबरदस्त हमला बोला गया था। 1944 के बाद से भारत के बंटवारे को रोकने की नाकामयाब कोशिशों में उलझे गांधी ने खुद इसका कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन उन्होंने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी द्वारा लिखे गए एक लघु निबंध-- "अम्बेडकर रेफ्यूटेड"-- को इसके जवाब के तौर पर सराहा।

1947 से 1951 के बीच अम्बेडकर और गांधी (जिनकी 1948 में हत्या कर दी गयी), नेहरू (जो आज़ाद भारत के पहले प्रधानमन्त्री बने और 1964 तक जीवित रहे) तथा पटेल (जो कि आज़ाद भारत के उप- प्रधानमंत्री थे और जो 1950 के अंत तक जिए) अप्रत्याशित और उल्लेखनीय रूप से एक दूसरे के करीब आये। इस करीबी के परिणाम के तौर पर अम्बेडकर न केवल आज़ाद भारत की पहली कैबिनेट में शामिल हुए बल्कि संविधान निर्माण की प्रक्रिया का नेतृत्व भी किया, जो कि 1950 के संविधान के रूप में सामने आया।

हालांकि अम्बेडकर ने 1951 में कैबिनेट से इस्तीफ़ा दे दिया। 1952 के चुनावों में और फिर 1954 के एक उपचुनाव में वे कांग्रेस के खिलाफ लड़े। हालांकि दोनों ही मौकों पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 1956 में, अपनी मृत्यु के कुछ ही वक़्त पहले, वह सैकड़ों हज़ार साथी दलितों के साथ हिन्दू धर्म छोड़कर बुद्ध की दृष्टि और आस्था की शरण में चले गए।

इस तरह, गांधी और अम्बेडकर की यह कहानी किसी भी लिहाज से एक दिलचस्प कहानी है। इस लेखक की तरह कई दूसरे लेखको ने इसको अपनी तरह से देखा है (1995, 2006) और बहुतेरे भविष्य में देखेंगे। अम्बेडकर और गांधी के बीच की बहस इन दोनों नेताओं के आपसी संबंधों का एक अनिवार्य हिस्सा है और यह अपने आप में अध्ययन का एक महत्वपूर्ण विषय है।

आगे इस लेख में अम्बेडकर- गांधी विमर्श की विवेचना करना मेरा उद्देश्य नहीं है। इसके बावजूद, मैं उम्मीद करता हूँ, यह लेख इस विषय पर हमारी समझ को समृद्ध बनाएगा। साथ ही इस लेख में गांधी- अम्बेडकर संबंधों की भी चर्चा होगी। हालांकि गांधी- अम्बेडकर संबंधों का विश्लेषण करना भी शायद ही इस लेख का मुख्य उद्देश्य है। इस तरह मैं इस लेख में गांधी या अम्बेडकर से जिरह करने की किसी भी ख़्वाहिश को नकारता हूँ। हालाँकि मेरी एक इच्छा जरूर है, जिसे आप हौसला कह सकते हैं, वह है-- अरुंधति रॉय के साथ जिरह करना।

जब मैंने रॉय की "द डॉक्टर एंड द सेंट" पढ़ी तो मुझे उसका मुख्य उद्देश्य समझने में काफी वक़्त लगा। इस निबंध में उनका मुख्य उद्देश्य अनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट की थीसिस पर चर्चा करना नहीं था और निस्संदेह रूप से न ही गांधी- अम्बेडकर संबंधों की व्याख्या करना। "द डॉक्टर एंड द सेंट" का एकमात्र मंतव्य महात्मा गांधी पर उग्र स्वर में अभियोग लगाना है। इस तरह वो जगह- जगह यह संकेत देती हैं कि गांधी का विध्वंश ही उनका वास्तविक उद्देश्य है।

बहुतेरे दलित "द डॉक्टर एंड द सेंट" को इसलिए खारिज नहीं करते कि इसमें दी गयी स्थापनाओं की डॉ० अम्बेडकर के साथ असहमतियाँ हैं। बल्कि काफी हद तक इसलिए करते हैं कि इसका तीन चौथाई हिस्सा गांधी के बारे में है और सिर्फ एक चौथाई अम्बेडकर के बारे में। दरअसल, रॉय ने अम्बेडकर को केवल गांधी पर हमला बोलने के लिए उपयोग किया है। इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। उन्हें ऐसा करने का पूरा हक़ है। लेकिन ऐसा करने के पहले उन्हें अपने असल इरादे छुपाने नहीं चाहिए; बल्कि उन्हें खुलकर जाहिर कर देना चाहिए था।

हर कोई अरुंधति रॉय के हर एक अलोकप्रिय स्टैंड से सहमत नहीं हो सकता। लेकिन बहुत से लोग (इस लेखक की तरह) उनके एक या दो स्टैंड से सहमत हो भी सकते हैं। चूंकि कई अच्छे लोगों पर रॉय की कही बात का गहरा असर होता है, मैंने सोचा कि उनके द्वारा गांधी पर किये गए हमले की खामियों को उजागर करना जरूरी है। ऐसा करने से पहले मुझे निश्चित रूप से यह स्वीकारना चाहिए कि गांधी आलोचना से परे नहीं हैं। बल्कि कुछ उन बिन्दुओं पर भी गांधी की आलोचना की जा सकती है जिनकी तरफ अरुंधति रॉय ने इशारा किया है। 

गांधी उच्च जाति हिन्दुओं से लगातार छुआछूत और जातिगत श्रेष्ठता का दावा करने जैसे महान पापों का प्रायश्चित करने को कहते रहते थे। लेकिन उन्होंने दलित अधिकारों के लिए किसी सीधी लड़ाई को बमुश्किल कभी नेतृत्व प्रदान किया या उसको बढ़ावा दिया। या फिर यह कि उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए बड़ी तादाद में सीधी लड़ाइयां लड़ीं या उनको प्रेरणा प्रदान की। अपने दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान वो भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई लड़े। लेकिन सीधे तौर पर अश्वेतों के अधिकारों के लिए उन्होंने कोई लड़ाई नहीं लड़ी। यह ऐसे सत्य हैं जिन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। इसलिए रॉय को इन्हें दोहराने का पूरा अधिकार है भले ही यह सर्वविदित तथ्य हों।

कुछ और बातें भी हैं जिन्हें बेहिचक स्वीकार किया जाना चाहिए। रॉय जो कुछ एकदम बेमतलब के हमले करती हैं, हो सकता है उसकी वजह जानकारी का अभाव हो। वो कभी भी गांधी की शोधक नहीं रही हैं। बावजूद इसके यह  जा सकता है कि लापरवाही के साथ तथ्यों को नज़रअंदाज़ करना "द डॉक्टर एंड द सेंट" की सबसे गंभीर कमजोरी है। इससे पैदा हुयी रिक्तियाँ पाठक को 1920 से लेकर 1940 तक भारत में चल रही आज़ादी की लड़ाई और सामजिक न्याय के आन्दोलनों की एक- दूसरे से गुंथी हुयी बुनावट को समझने से वंचित रखती हैं। 

इस आधार पर मैं यह तर्क देना चाहता हूँ कि "द डॉक्टर एंड द सेंट" में गांधी- अम्बेडकर संबंधों का आख्यान, जिसमें संघर्ष और साझेदारी दोनों हैं, गम्भीर रूप से त्रुटिपूर्ण है। भले ही गांधी- अम्बेडकर संबंधों की जांच-पड़ताल अरुंधति रॉय का केंद्रीय उद्देश्य नहीं है, यह उसका सबसे मुखर हिस्सा तो है ही।

साथ ही मैं यह जरूर सिद्ध करना चाहूंगा कि रॉय के गांधी पर हमले ऐतिहासिक विवेचना के सामान्य सिद्धांतों की अवहेलना करते हैं। इन सिद्धांतों के अनुसार किसी भी व्यक्ति द्वारा दिए गए किसी वक्तव्य पर हमला उसके तत्कालीन सन्दर्भ के साथ किया जाना चाहिए। भले ही वो वक्तव्य किसी 'क' या 'ख' या एक महात्मा का 50 या 100 साल पहले दिया गया वक्तव्य ही क्यों न हो। दूसरी बात, इन मापदंडों की दरकार है कि उस वक्तव्य से जुड़े हुये दूसरे अनिवार्य तथ्य काटकर अलग नहीं कर दिए जाने चाहिए।


तथ्यों की अनदेखी 
आइये "द डॉक्टर एंड द सेंट" में लगाए गए इस आरोप पर सावधानीपूर्वक विचार करें। "[गांधी का] दोहरापन उनको बड़े उद्योगों का समर्थन करने और उनसे समर्थन पाने की अनुमति देता था" (पृष्ठ 49)। इस दावे को बल देने के लिए रॉय इसके अंत में एक लम्बा कथन जोड़ती हैं। जिसमें वो दावा करती हैं कि गांधी का बड़े बांधों को लेकर दृष्टिकोण उनकी 5 अप्रैल 1924 को लिखी एक चिट्ठी से जाहिर होता है। इस चिट्ठी में वो मुळशी बाँध की वजह से विस्थापन झेल रहे आन्दोलनरत ग्रामीणों को विरोध छोड़ देने की सलाह देते हैं। उल्लेखनीय हैं कि यह बाँध टाटा द्वारा बिजली पैदा करने के लिए बनाया जा रहा था (पृष्ठ 151-52)।

इसके उलट सच्चाई  क्या है? रॉय एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य को दरकिनार कर देती हैं, जो इसके तीन साल पहले का है। जब अप्रैल 1921 में विस्थापित ग्रामीणों ने पहली बार प्रस्तावित बाँध के खिलाफ अपना सत्याग्रह शुरू किया, गांधी ने अपने जर्नल यंग इंडिया में टाटा को एक तीखी मगर शिष्टतापूर्ण चुनौती दी:

मेरा  विश्वास है कि टाटा का महान घराना, अपने दावे के कानूनी हकों पर आधारित होने के बावजूद, स्वतः ही लोगों के साथ मिलकर निर्णय लेगा और जो कुछ भी वो करना चाहते हैं उनसे सलाह- मशविरा करके ही करेगा... भला उन तमाम फायदों की क्या कीमत है जो कि टाटा की योजना के दावे के अनुरूप भारत को मिलेंगे, अगर यह एक भी गरीब आदमी की अनिच्छा की कीमत पर हो?

मुझे कहना होगा कि बीमारी और गरीबी की समस्याएं आसानी से सुलझाई जा सकती हैं और जो लोग जीवित रहेंगे वे विलासिता में जिएंगे, अगर तीन करोड़ अधभूखे आदमी-औरत और लाखों बूढ़े मनुष्य मार दिए जाएं और उनके शरीर खाद की तरह इस्तेमाल कर लिए जाएं... लेकिन कोई पागल भी ऐसा सुझाव नहीं देगा। लेकिन क्या यह इससे कम होगा कि आदमी और औरतें अपनी कीमती जमीनों से अनिवार्य रूप से वंचित कर दिए जाएं [जिनके चारों तरफ] भावनाएं, रोमांस और वह सब कुछ विकसित हुआ हो जिससे उनकी ज़िंदगी जीने लायक होती है?
मैं महान नाम के संरक्षकों को सलाह देता हूँ कि वो भारत के हितों को सही मायनों में आगे बढ़ा पाएंगे अगर वो अपने कमजोर और असहाय देशवासियों की इच्छाओं का सम्मान करेंगे (गांधी वांग्मय 20: 40-41, 27 अप्रैल 1921)।
  
टाटा अपील के बावजूद अपनी योजना पर आगे बढे। इस अपील के बमुश्किल एक साल के भीतर ही, गांधी को जेल भेज दिया गया-- मुळशी बाँध पर उनकी राय की वजह से नहीं, इंग्लैंड के राजा के खिलाफ राजद्रोह के आरोप में। जब तक वो रिहा होकर बाहर आये, आधा बाँध बनाया जा चुका था। जैसा कि गांधी ने चिट्ठी में लिखा था और जैसा कि रॉय खुद अपने कथन में उद्धृत भी करती हैं, विस्थापित ग्रामीणों का "एक विशाल बहुमत" मुवायजे स्वीकार कर चुका था। सबसे बढ़कर, तब तक चल रहे सत्याग्रह के नेता गांधी के अनुसार अहिंसक आंदोलन के लिए प्रतिबद्ध नहीं रह गए थे। यह सब कहते हुए ही गांधी ने सत्याग्रह वापस लेने की सलाह दी थी।

यह सलाह पर्याप्त रूप से किसानों की पक्षधर या बाँध- विरोधी थी या नहीं, यह एक वाजिब सवाल है। जिसका जवाब तमाम तरह से दिया जा सकता है। हालांकि इसका सही जवाब पाने के लिए विश्वसनीय शोध की जरूरत होगी। इसके बावजूद, जिस अंदाज़ में रॉय गांधी द्वारा मुळशी बाँध के सम्बन्ध में टाटा से की गयी जोरदार सार्वजनिक अपील को दबा ले जाती हैं, वह उनको एक निर्णायक के तौर पर अयोग्य बनाता है। उस पर से अपने आलेख में किसी दूसरी जगह पर रॉय का यह कहना कि गांधी टाटा के लिए नरम रुख रखते थे, हमें उन पर और भारी संदेह करने के लिए मजबूर करता है।   

रॉय उस समय के, और आज के भी, एक प्रतिष्ठित व्यापारिक घराने--बिरला घराने— के घनश्यामदास बिरला, जो कि अक्सर गांधी की मेहमान-नवाज़ी करते थे, पर इसी तर्ज पर टिप्पणी करती हैं। रॉय कहती हैं कि 1915 में जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे, बिरला ने "कलकत्ता में एक भव्य स्वागत- समारोह आयोजित कराया... [वो] गांधी के मुख्य संरक्षक बन गए और उन्हें [गांधी को] उदार मासिक अनुदान दिये... बिरला के साथ गांधी की यह व्यवस्था ताउम्र बनी रही" (पृष्ठ 88-89)। लेकिन रॉय अपने इस दावे के पक्ष में कोई स्रोत उपलब्ध नहीं करातीं।   
यहां एक और वर्णन पेश है, जो खुद बिरला का है। जब गांधी 1915 में कलकत्ता आये, 21 साल के घनश्यामदास बिरला और कुछ अन्य लोगों ने मिलकर गांधी को स्टेशन से लाने के लिए भेजी गयी बग्घी के घोड़े खोल दिए और बग्घी को खुद खींचा। चार दशक बाद, गांधी की मृत्यु के उपरान्त, बिरला कलकत्ता के इस जलसे में गांधी से हुयी पहली मुलाक़ात और बातचीत को इस तरह याद करते हैं:

मैंने उनको सूचित किया कि मैं... उनको मासिक चंदा भेजा करूँगा... "अच्छा है", उन्होंने [गांधी ने] कहा। देखिये [इसके बाद] मैंने क्या किया-- ये मेरा कितना बड़ा पागलपन था! मैंने कहा, 'तब तो बहुत अच्छा। मैं आपसे हर महीने एक चिट्ठी की उम्मीद करूँगा'। उन्होंने मुंहतोड़ जवाब देते हुए कहा, 'इसका मतलब मुझे हर महीने एक भीख का कटोरा लेकर तुम्हारे पास आना होगा?' मैं शर्म से पानी- पानी हो गया। मैंने गांधीजी से पूछा, 'अगर मैं आपको लिखूं, तो क्या आप जवाब देंगे?' 'बेशक', उन्होंने कहा। केवल उनको परखने के लिए, उनके जाने के चार या पांच दिन बाद मैंने उनको एक चिट्ठी लिखी। उन्होंने [उस चिट्ठी का] एक पोस्टकार्ड पर जवाब दिया। (बिरला, एनडी)

हममें से कोई भी तय कर सकता है इनमें से कौन सा वर्णन-- रॉय का या बिरला का-- सच है।           


महाड के दिलेर दलित 
जानकारी का अभाव रॉय द्वारा 1927 के महार सत्याग्रह पर गांधी की टिप्पणी को तकरीबन छुपा ले जाने की हरकत का स्पष्टीकरण नहीं हो सकता। यह आंदोलन पश्चिमी महाराष्ट्र में अम्बेडकर के नेतृत्व में संचालित हुआ था। एक बड़ी तादाद में दलितों ने महाड के एक तालाब के पानी को इस्तेमाल करने पर लगी रोक को मानने से इंकार कर दिया। अपने सत्याग्रह के तहत वे एकजुट होकर आगे बढे और तालाब का पानी पिया। उसके बाद, रूढ़िवादी तबके के गुस्साए लोगों ने उन पर डंडों और गदाओं से हमले किये।

अम्बेडकर, जो कि महाड में खुद मौजूद थे, ने बुद्धिमानी से अपने लोगों से जवाबी हिंसा न करने की अपील की। जैसा कि रॉय खुद कबूल करती हैं (पृष्ठ 107), गांधी ने "हमले के वक़्त 'दलितों के मानसिक संतुलन' की तारीफ" लिखकर की। हालांकि गांधी ने यंग इंडिया के उस लेख में जितना हिस्सा रॉय ने उद्धृत किया है उससे कहीं कुछ ज्यादा लिखा था। इसलिए यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्होंने गांधी के इस लेख को पढ़ा जरूर है।

दलितों के "अनुकरणीय आत्म- नियंत्रण" की तारीफ करते हुए गांधी ने लिखा कि "तथाकथित रूढ़िवादी दल" ने सरासर पशुवत बल का प्रयोग किया और उसके पक्ष में वो कोई सफाई नहीं दे सकते। इससे बढ़कर गांधी ने 28 अप्रैल 1927 के यंग इंडिया में लिखा:

डॉ० अम्बेडकर इस मायने में बिलकुल ठीक थे कि उन्होंने बम्बई लेजिस्लेटिव कौंसिल और महाड नगरपालिका के प्रस्तावों को यह कहकर परखा कि तथाकथित अछूत तालाब पर जाएं और अपनी प्यास बुझाऐं।

महात्मा ने छुवाछूत का विरोध करने वाले हर हिन्दू से महाड के दिलेर दलितों का बचाव करने की सलाह दी, "भले ही" इस कोशिश में "सर फोड़ दिए जाने का जोखिम हो" (गांधी वांग्मय 33: 368)।

एक बार फिर रॉय एक क्रांतिकारी टिप्पणी को जानबूझकर छिपा ले जाती हैं।

यह  "द डॉक्टर एंड द सेंट"  में गांधी और दलित अधिकारों के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य छुपाने के कई उदाहरणों में से कुछ एक उदाहरण थे। यहाँ इस तरह का एक और उदाहरण प्रस्तुत है। 

रॉय (पृष्ठ 123) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1931 के कराची प्रस्ताव को एक "बहुमूल्य, प्रबुद्ध दस्तावेज" के तौर पर स्वीकारती हैं। यह प्रस्ताव सबको समान अधिकार सुनिश्चित करता था, जोकि 1950 के संविधान की समानता की शपथ का अग्रगामी बना। लेकिन वो उसका मसौदा तैयार करने में गांधी की महती भूमिका का उल्लेख करने से परहेज करती हैं।

यहाँ एक और उदाहरण पेश है। रॉय "जाति- विरोधी परंपरा के प्रिय भक्ति कवियों"-- "चोखामेला, रविदास, कबीर, तुकाराम, मीरा, जनाबाई" (पृष्ठ 37) का नाम लेती हैं। (हालांकि महार कवि चोखामेला के नाम की उनकी वर्तनी गलत है।) लेकिन वह अपने पाठकों को यह नहीं बतातीं कि इनमें से कई भक्ति कवि गांधी के भी प्रिय कवियों में थे। या फिर यह कि इनके गीत उनके आश्रमों और प्रार्थना सभाओं में भी खूब गाये जाते थे।


छुवाछूत का पाप  
गांधी की मृत्यु के वक़्त तक, भारत जाति-ग्रस्त बना रहा और दलितों के साथ बुरा व्यवहार जारी रहा। उसके बाद भी अगले कई दशकों तक भारतीय समाज में क्रांतिकारी ढंग से बदलाव नहीं हुआ। लेकिन जितना भी बदलाव हुआ, गांधी के शब्दों और कामों ने उसमें योगदान किया। 

दक्षिण अफीका में युवा गांधी ने भारतीयों के साथ भेदभाव को भारत में छुवाछूत के प्रतिफल के रूप में व्याख्यायित किया। गांधी ने मई 1907 में इंडियन ओपिनियन में लिखे एक लेख में "छुवाछूत के बुरे अंधविश्वासों" की चर्चा की और यह भी जिक्र किया कि कैसे "भारत में हममें से कुछ लोग भंगियों पर अत्याचार करते हैं और उन्हें मजबूर करते हैं... गुलामाना भाषा बोलने के लिए (गांधी वांग्मय 7: 470)। जब सत्याग्रह की वजह से कई भारतीय जेल गए और कई लोगों ने दलितों के साथ खाना खाने और उनके करीब सोने से इंकार किया, गांधी ने उन लोगों को फटकार लगाई (सीडब्लू: 9: 181)।

गांधी के भारत लौटने के लगभग एक साल बाद 16 फ़रवरी 1916 को  गांधी ने छुवाछूत के बारे में मद्रास में एक सार्वजनिक सभा में कहा-- "इस पवित्र भूमि में हम जो भी दुःख भोग रहे हैं वह हमारे इस अमिट महा- अपराध का सटीक और उचित दंड है, जो हम कर रहे हैं" (सीडब्लू: 13: 232- 33)। जब रूढ़िवादियों ने उन पर हमला बोला, गांधी ने नवंबर 1917 में गोधरा (गुजरात) में उसका जवाब इस तरह दिया-- "मुझे अपना खुद का गुरु बने रहना चाहिए... इस रूढ़िवादिता के जवाब में मनुस्मृति और दूसरे शास्त्रों से श्लोक उद्धृत करने का कोई मतलब नहीं है। बहुतेरे श्लोक अप्रमाणिक हैं और उनमें से तमाम तो कतई बेमतलब हैं" (सीडब्लू 14: 73-77)। उन्होंने अपने मत को दोहराया कि शास्त्रों से उद्धृत श्लोक एक व्यक्ति के अंतःकरण की आवाज़ को कुचल नहीं सकते। उन्होंने आगे कहा कि शास्त्रों के श्लोक "तर्क और नैतिकता से पर नहीं हो सकते" (सीडब्लू 14: 345)।

एक साल बाद, अप्रैल 1918 में, गुजराती कविताओं की एक किताब की भूमिका में लेखक पढियर ने दलितों पर हो रहे क्रूर व्यवहार का वर्णन किया. गांधी ने कहा कि यह कविताएँ "लाखों आदमियों और औरतों को उसी तरह सुनायी जानी चाहिए जैसे कि भगवत गीता जैसे ग्रन्थ चौराहे- चौराहे पर उनको सुनाये गए हैं" (सीडब्लू 14: 344-45)।

दो साल बाद, असहयोग आंदोलन छेड़ने के बाद, यंग इंडिया में उन्होंने अपने लेख के माध्यम से नवंबर 1920 में कहा, "हम तब तक स्वराज को हासिल करने के लायक नहीं होंगे जब तक हमने आबादी के पांचवें हिस्से को बंधक बनाकर रखा है" (सीडब्लू 19: 20)। 1920 का साल ख़त्म होते- होते गांधी ने यह सुनिश्चित कर लिया कि छुवाछूत का उन्मूलन इंडियन नेशनल कांग्रेस के राजनीतिक कार्यक्रम का अभिन्न हिस्सा होगा। यह इसके पहले संभव नहीं हुआ था और अम्बेडकर ने इसके पीछे गांधी की भूमिका को गांधी के खिलाफ लिखी 1945 की अपनी किताब में स्वीकार किया था।

स्वराज के लिए 1920 में छेड़े गए असहयोग आंदोलन के बाद राष्ट्रीय स्कूल खोले गए थे। इन स्कूलों से दलितों को दूर रखने की मांग ठुकराने पर गांधी के रूढ़िवादी शत्रुओं ने उन पर हिंसक भाषा में हमला बोला। इन लोगों ने प्रेस के माध्यम से, अख़बारों में, कानाफूसी के अभियान के मार्फ़त गांधी को चेताया कि अगर जब तक दलित इन स्कूलों से बाहर नहीं किये जाते, वो ब्रिटिश राज को समर्थन देंगे और इस तरह स्वराज आंदोलन की हत्या कर देंगे। उन्होंने आरोप लगाया कि गांधी ने दलितों के मामले में दिलचस्पी अपने ईसाई दोस्तों से उधार ली है; ख़ास तौर पर श्रद्धेय चार्ल्स एंड्रूज़ से।

गांधी की प्रतिक्रिया दोहरी थी। अपने गुजराती साप्ताहिक नवजीवन में 5 दिसंबर 1920 को उन्होंने विश्वास जताया कि "ईश्वर मुझे उस स्वराज को ठुकराने की शक्ति देने की कृपा करेगा जो कि अन्त्यज लोगों के परित्याग से हासिल होगी" (सीडब्लयू 19: 73)। (इस वक़्त तक बहुत से लोग दलितों के लिए अन्त्यज शब्द का प्रयोग करते थे।)

दूसरा, गांधी ने एंड्रूज़ को लिखते हुए सार्वजनिक भाषणों में छुवाछूत के खिलाफ अपनी मुहीम की शुरुआत को याद किया। एंड्रूज़ को लिखे 29 जनवरी 1921 के एक पत्र में उन्होंने कहा,

मैंने यह काम दक्षिण अफ्रीका में शुरू किया था-- उसके पहले, जब मैंने तुम्हारा नाम भी नहीं सुना था और मैं जब तक दक्षिण अफ्रीका में ईसाई प्रभाव में आया उससे पहले ही छुवाछूत के पाप के बारे में जागरूक चुका था। यह सत्य तब उजागर हो गया था जब मैं एक बच्चा ही था। जब मेरी माँ मुझे और मेरे भाइयों को किसी परियाह को छूने पर नहलाती थी, मैं उन पर हंसा करता था। यह 1887 की बात है जब मैंने डरबन में श्रीमती गांधी को घर से निकालने की ठान ली थी क्योंकि वो लॉरेंस, जिसे वो जानती थीं कि वो परियाह है, के साथ समानता का बर्ताव नहीं करती थी और जिसे मैंने अपने साथ रहने के लिए आमंत्रित किया था।

एंड्रूज़ ने गांधी के छुवाछूत विरोधी अभियान पर लगातार और पूरी ताकत से जुट जाने के लिए उत्सुकता जताई थी। गांधी ने उसी पत्र में यह जोड़ा,

तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो अगर तुम खुद को एक क्षण के लिये भी यह सोचने देते हो कि मैं [छुवाछूत के] मुद्दे को किसी अन्य मुद्दे के अधीन कर सकता हूँ... यह भारत की आज़ादी से कहीं बड़ी समस्या है, लेकिन मैं इससे ठीक ढंग से निपट सकता हूँ अगर मैं दूसरी को रास्ते में हासिल कर लूँ (सीडब्लयू: 19: 288- 90; जोर आपका)।

तकरीबन तीन महीने बाद 13 अप्रैल 1921 को गांधी ने अहमदाबाद में दलित वर्ग सम्मलेन को सम्बोधित किया। उन्होंने कहा,

मैं बमुश्किल 12 साल का था जब यह विचार मेरे भीतर जागा। ऊका नाम का एक मेहतर, एक 'अछूत', हमारे घरों में पाखाना साफ़ करने आता था। मैं अक्सर अपनी माँ से पूछता था... हमें उसे छूने से क्यों रोका जाता है? अगर मैं धोखे से ऊका को छू लेता था, मुझे स्नान करने को कहा जाता था। हालांकि मैं स्वाभाविक रूप से आज्ञा का पालन करता था, यह एक मुस्कुराते विरोध के बिना नहीं होता था। मेरा अक्सर [मेरे माता- पिता] के साथ इस मुद्दे पर संघर्ष होता था। मैंने अपनी माँ से कहा कि वो एकदम गलत हैं जो ऊका से साथ किसी भी शारीरिक स्पर्श को पाप मानती थी (सीडब्लयू 19: 572)।

ठीक दो साल पहले ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर और गवर्नर माइकल ओ'डायर के हाथों में जालियांवाला बाग़ नरसंहार हुआ था। दलित वर्ग सम्मलेन में इस नरसंहार को याद करते हुए उन्होंने कहा,

जिन गुनाहों के लिए हम सरकार की भर्त्स्ना उसे शैतान कहकर करते हैं क्या हम ठीक वैसे ही गुनहगार अपने 'अछूत' भाइयों के प्रति नहीं हैं? हमने उन्हें पेट के बल रेंगने पर मजबूर किया, हमने उन्हें जमीन पर नाक रगड़ने पर मजबूर किया; गुस्से से तमतमाई लाल आँखों से हमने उन्हें रेल के डिब्बों से धक्के दिए-- क्या ब्रिटिश राज ने इससे कुछ ज्यादा किया है? हम डायर और ओ'डायर के खिलाफ जो आरोप लगते हैं क्या हमारे अपने लोग हम पर वही तोहमत नहीं लगा सकते? (सीडब्लयू 19: 572)
     
रॉय अपने पाठकों को ऊपर के पैराग्राफ में लिखी कोई भी बात जानने की अनुमति नहीं देतीं। हालांकि यह भी सच है कि छुवाछूत के खिलाफ लड़ाई 1920 के दशक में गति नहीं पकड़ सकी। अम्बेडकर इस बात को उचित ही रेखांकित करते हैं। ऐसा काफी हद तक भारतीय समाज की जड़ता की वजह से हुया और इसलिए भी कि गांधी और उनके साथियों के सामने स्वराज और हिन्दू- मुस्लिम एकता जैसे कुछ अन्य कठिन लक्ष्य थे, जिन्हें वे हासिल करने की कोशिश कर रहे थे।


पृथक दलित निर्वाचक मंडल
2 अगस्त 1931 को गोलमेज सम्मलेन के लिए लंदन जाने के ठीक पहले गांधी ने अहमदाबाद में एक महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया था। यह लगभग वही समय था जब वो और अम्बेडकर, जो कि खुद लंदन जा रहे थे, पहली बार मुंबई में मिले थे। गांधी ने कहा,

अगर हम छुवाछूत के दाग के बने रहते सत्ता में आ गए, मुझे यकीन है 'अछूतों' की हालत स्वराज के भीतर आज से बदतर हो जाएगी, इसकी सीधी सी वजह है कि हमारी कमजोरियाँ और नाकामियाँ तब सत्ता को हासिल करके मजबूत हो जाएँगी (प्यारेलाल 1932:303)।

यहाँ गांधी स्वीकार कर रहे हैं कि स्वराज भारत की ऊंची जातियों को राजनीतिक सत्ता भी दे देगा जो पहले से ही सामाजिक और आर्थिक सत्ता का सुख भोग रहे हैं और इसलिए यह दलितों की हालत और "बदतर" कर देगा। चूंकि स्वराज का लक्ष्य स्थगित नहीं किया जा सकता था, गांधी के मुताबिक़ इसका निदान स्वराज की लड़ाई के साथ- साथ छुवाछूत पर हमला करना था।

लंदन की कॉन्फ्रेंस में गांधी और अम्बेडकर के बीच पृथक बनाम संयुक्त निर्वाचक मंडल के मुद्दे पर प्रसिद्ध झड़प हुयी। अगर राज सिखों, मुसलमानों और भारत के यूरोपियों को पृथक निर्वाचक मंडल दे सकता था, तो फिर दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल क्यों नहीं? गांधी ने एक उलटा सवाल दागते हुए जवाब दिया था-- "सिख अनंत काल तक जस के तस सिख बने रह सकते हैं, उसी तरह मुसलमान, उसी तरह यूरोपियन। क्या अछूत उसी तरह हमेशा के लिए अछूत बने रह सकते हैं" (सीडब्लयू 48:298)।

लेकिन गांधी की कुछ और गहरी चिंताएं थी जो कि एक दिल दुखाने वाला यथार्थ था। इस यथार्थ को गांधी ने 31 अक्टूबर 1931 को इयूस्टन के क्वेकर सेंटर, फ्रेंड्स हाउस, लंदन में कुछ इस तरह बयान किया:

अछूत उच्च वर्गों के कब्जे में हैं। जो कि उन्हें पूरी तरह से कुचल सकते हैं और अछूत, जो कि उनकी दया पर निर्भर हैं, को बदले की भावना से बर्बाद कर सकते हैं। मैं शायद अपनी शर्म आपके सामने ज़ाहिर कर रहा हूँ। लेकिन... मैं उनके चरम विनाश को निमंत्रण कैसे दे सकता हूँ.? मैं इस जुर्म का दोषी नहीं बनूँगा (सीडब्लयू 48: 258)। 

गांधी ने गोलमेज सम्मलेन की अल्पसंख्यक समिति के सामने कहा कि "वो भारत की आज़ादी की कीमत पर भी अछूतों के हितों को बेचने को कतई तैयार नहीं हैं"। उन्होंने दावा किया (13 नवंबर 1931 को) कि जो लोग पृथक निर्वाचक मंडल की मांग कर रहे हैं "वो अपना भारत नहीं जानते, नहीं जानते कि आज का भारतीय समाज किस तरह संघटित है" (सीडब्लयू 48:297-98)।

हालांकि रॉय ने लंदन में गांधी- अम्बेडकर बहस पर कई पन्ने समर्पित किये हैं, वो बड़ी सावधानी से उन सन्दर्भों और वाक्यों को मिटा देती हैं जो कि मैंने उद्धृत किये हैं। 

अम्बेडकर की दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की मांग को गोलमेज सम्मलेन के कई प्रतिनिधियों का समर्थन हासिल था, जिनमें से ज्यादातर राज द्वारा मनोनीत किये गए थे। राज ने साफ़ इशारा कर दिया था कि पृथक निर्वाचक मंडल लागू किये जा सकते थे। इसके विपरीत गांधी ने घोषित कर दिया था कि अगर जरूरत पड़ी वो इसके खिलाफ आमरण अनशन करेंगे।


चयनात्मक और पूर्वाग्रह- ग्रसित
"द डॉक्टर एंड द सेंट" का एक बड़ा हिस्सा गांधी के दक्षिण अफ़्रीकी प्रवास के दौरान अश्वेत दक्षिण अफ़्रीकी लोगों के प्रति कुछ समय के लिए निस्संदेह रूप से उनकी खेदजनक अज्ञानता और श्रेष्ठता- भाव, जिसकी अक्सर चर्चा की जाती है, को समर्पित है। हालांकि, यहाँ भी रॉय बड़े ध्यान से अपने तथ्य चुनती हैं। इस तरह वो 1908 के एक मशहूर भाषण को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर देती हैं जो गांधी ने इस मुद्दे पर जोहानिसबर्ग में तब दिया था जब वो ब्रिटिश साम्राज्य से बड़ी उम्मीदें रखते थे। 

मुझे लगता है कि एशियाई और अफ्रीकन दोनों ने साम्राज्य को समग्र रूप से आगे बढ़ाया है; हम अफ़्रीकी जातियों के बगैर दक्षिण अफ्रीका कल्पना भी नहीं कर सकते... दक्षिण अफ्रीका अफ़्रीकी जातियों के बगैर शायद एक जंगली इलाका होगा... वो (अफ़्रीकी जातियाँ) अभी भी इतिहास की दुनिया में सीख रहे हैं। शारीरिक रूप से सक्षम और बुद्धिमान जैसे कि यह लोग हैं वह हर हाल में साम्राज्य के लिये संपत्ति हैं। 
साम्राज्य का वफादार होना मेरे लिए अच्छा है, लेकिन मैं प्रजा का सदस्य होने के नाते यह उम्मीद नहीं कर रहा हूँ।
अगर हम भविष्य की ओर देख रहे हैं तो क्या यह एक विरासत नहीं है जिसे हम भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ रहे हैं कि अलग- अलग जातियाँ एक- दूसरे से मिलती हैं और एक ऐसी सभ्यता का निर्माण करती हैं जो अब तक दुनिया ने नहीं देखी है (सीडब्लयू 8:242- 46)।

यह उस विख्यात भाषण का अंश है जो जोहानिसबर्ग के वाईएमसीए में दिया गया था। जिसे इंडियन ओपिनियन के दो अंकों में (6 और 13 जून 1908) में भी प्रकाशित किया गया था। यहाँ तक कि बाद में कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गांधी में भी यह शामिल है और एक से ज्यादा आधुनिक अध्ययनों में इस भाषण की चर्चा हुयी है। मगर रॉय या तो इसके बारे में अनभिज्ञ हैं (इतने गहन शोध के बावजूद) या वह दूसरों को इसे पढ़ने नहीं देना चाहतीं। हालांकि आज के मापदंडों से यह बमुश्किल क्रांतिकारी है, लेकिन यह भाषण उस समय से बहुत आगे है जिस समय यह दिया गया था। दक्षिण अफ्रीका या भारत में बहुत कम भारतीयों ने 1908 में या उसके बाद "विभिन्न जातियों" के "सम्मिश्रण" की बात की थी। वास्तव में, पूरी दुनिया में बहुत कम लोगों ने, यहां तक की आज भी।                

गांधीजी के उस वक़्त के पूर्वाग्रहों को (जो उनके लगभग सभी समकालीनों में पाये जाते थे) खुले दिल से स्वीकार किया जाना चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि रॉय उनके खाता- बही के उस अनुकूल पक्ष को क्यों छुपा ले जाती हैं जो अपने समय में दुर्लभ था?

जैसी कि उम्मीद की जा सकती है, रॉय गांधी की जॉन ड्युब के साथ दोस्ती को भी नज़रअंदाज़ कर देती हैं। जॉन ड्युब अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में एक थे और जिसके बारे में खूब दस्तावेज मौजूद हैं। डरबन में इनका केंद्र फीनिक्स से बहुत दूर नहीं था, जहां गांधी ने अपना पहला आश्रम बनाया था। गांधी की तरह ड्युब भी 1906 के जुलु विद्रोह का समर्थन करने से हिचकिचाये थे और उन्होंने कहा था कि "हमें... विद्रोह के दमन में सरकार की मदद करनी चाहिए" (रेड्डी में उद्धृत 1995: 21)।

वीरतापूर्ण पर साथ ही कारुणिक यह विद्रोह भारत के 1857 के विद्रोह से काफी समानताएं रखता था। 1857 के विद्रोह से बंकिमचन्द्र चटर्जी, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और सैय्यद अहमद खान जैसे समकालीनों ने दूरी बनाकर रखी थी और एक अन्य समकालीन ज्योतिबा फूले ने इसका खुलकर विरोध किया था। 

रॉय गांधी के कथित तौर पर अश्वेतों के प्रति "तिरस्कार" (पृष्ठ 83) की बात करती हैं, लेकिन यह नहीं कह पाती हैं कि गांधी की यह आक्रामक टिप्पणियाँ गंभीर अपराधों में बंद अश्वेत कैदियों के चौंकाने वाले आचरण की वजह से भड़की थीं, जो उनके साथ जेल की कोठरी में बंद थे।

दक्षिण अफ़्रीकी अश्वेतों के लिए गांधी का रुख परिस्थितयों और पूर्वाग्रहों से प्रभावित था और साथ ही उस समय के समीकरणों से भी। चूंकि अश्वेत दक्षिण अफ्रीका के राजनीतिक और सामजिक सोपान में सबसे निचले पायदान पर थे, अंग्रेजों के साथ भारतीयों की समानता की लड़ाई में अनिवार्य रूप से, हालांकि अफसोसजनक रूप से भी, भारतीयों को अश्वेतों से अलग करना एक जरूरत थी। लेकिन इस मामले को देखने का यह नजरिया रॉय के लिए किसी दिलचस्पी का नहीं है।

नेल्सन मंडेला, रॉय जिनकी तारीफ करने का दम भरती हैं, 1995 के एक प्रकाशन में लिखते हैं-- "गांधी को शुरुआत में यह जानकार धक्का लगा कि जेल में भारतीयों को नेटिव लोगों के साथ वर्गीकृत किया गया था... कुल मिलाकर, गांधी को इन पूर्वाग्रहों के लिए समय के सन्दर्भ और परिस्थितियों के मद्देनज़र जरूर माफ़ कर दिया जाना चाहिए।"

"समय का सन्दर्भ" दरअसल वह चीज है जिसे रॉय काटकर अलग कर देती हैं। इस तरह, अपरिपक्व अफ्रीकन- भारतीय गठबंधन के प्रति गांधी की सावधानी को वह हद से ज्यादा तवज्जो देती हैं और ताना मारती हैं (पृष्ठ 74 -75)। मगर, उनके पाठकों को यह जानना चाहिए कि 1913 में ड्युब, जो कि अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के पहले अध्यक्ष थे, भी सोचते थे कि गांधी के नेतृत्व में चल रहे भारतीयों की तर्ज पर अश्वेत प्रतिरोध विफल हो जाएगा। उनका मानना था कि अश्वेत लोग भड़काऊ परिस्थितयों में आत्मसंयम खो देंगे और फिर श्वेत प्रतिहिंसा बहुत विनाशकारी होगी (पटेल में उद्धृत 1989:216 -17)। अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के एक अन्य संस्थापक सदस्य सेल्बी सिमांग, जिनका 1976 में साक्षात्कार लिया गया था, भी यह सोचते थे कि गांधी के समय का अफ्रीकन नेतृत्व "किसी भी हाल में, भारतीय राजनीति को किसी भी गठजोड़ के समर्थन के लिए बहुत उग्र मानता था" (स्वान 1985:133)।

यद्यपि इस तरह की स्वीकारोक्तियाँ, रॉय जो चित्र खींचना चाहती हैं उसे झुठला देती हैं।

पूना की यरवदा जेल में, जहां गांधी 1922 से 1924 तक कैद थे, उन्होंने अदन नामक एक कैदी से दोस्ती की। अदन एक सोमाली कैदी थे जिन्हें जेल प्रशासन ने संतरी बनाया था। अदन के साथ जुडी एक घटना को गांधी के जेल में साथी रहे और अक्सर उनकी आलोचना करने वाले इंदुलाल याग्निक ने 1943 में लिखी अपनी किताब गांधी ऐज़ आई न्यू हिम में इस तरह बखान किया है।       

एक शाम को हमारे सोमालियाई नीग्रो वार्डर की बांह में बिच्छू ने काट लिया वो जोर से चीखे। मि० गांधी तुरंत मौके पर पहुँच गए.... उन्होंने पहले तो घाव को काटने और जहर को निकालने के लिये चाकू माँगा. लेकिन उन्हें चाकू गन्दा लगा। इसलिए एक क्षण की देरी किये बिना उन्होंने तुरंत घाव के आस-पास के हिस्से को धोया और घाव पर अपने होंठ लगाकर जहर को चूस कर बहार निकालना शुरू कर दिया। वो चूस- चूस कर थूकते रहे और अंततः तब रुके जब अदन को राहत मिल गयी (याग्निक 1943:303)।

क्या यह उस व्यक्ति की प्रतिक्रिया थी जो अश्वेतों से "नफरत" करता था? रॉय न तो खुद यह सवाल पूछेंगी, न ही अपने पाठकों को यह जानने देंगी कि गांधी ने यह प्रतिक्रिया दी। वह गांधी की अश्वेत अधिकारों पर खुलकर लिखने की बढ़ती हुयी इच्छा को भी दबा देंगी या कम कर के आंकेंगी।

22 जुलाई 1926 को गांधी ने यंग इंडिया में घोषित किया कि वह नहीं समझते कि "[दक्षिण अफ्रीका में] भारतीयों के साथ कोई न्याय हो सकता है अगर वह [न्याय] उस मिटटी के स्थानीय लोगों को प्राप्त नहीं है" (सीडब्लयू 31:181-82)। दो साल बाद जब दक्षिण अफ्रीका में कुछ भारतीयों ने भारतीय छात्रों को फोर्ट हेयर कॉलेज, जो कि अफ़्रीकी लोगों के लिए बनाया गया था, भेजने पर ऐतराज़ जताया, तो गांधी ने 5 अप्रैल 1928 के यंग इंडिया में इस प्रतिक्रिया की तुलना उस प्रतिक्रिया से की "जो कि दक्षिण अफ़्रीकी श्वेतों ने हमारे मामले में जाहिर की है"। उन्होंने जोर देकर कहा, "भारतीय... अफ्रीका में वहां के लोगों सक्रिय सहानुभूति और दोस्ती के बिना हरगिज़ नहीं रह सकते" (सीडब्लयू 36:190)।

1939 में, उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के एक आगंतुक अश्वेत नेता, श्रद्धेय एस० एस० तेमा, से कहा कि अफ़्रीकी "धरती के लाल हैं जिनकी विरासत को लूटा जा रहा है" और उनका मुद्दा दक्षिण अफ़्रीकी हिन्दुस्तानियों की तुलना में "कहीं ज्यादा बड़ा मुद्दा है" (हरिजन, 18 फ़रवरी 1939;सी डब्लयू 68:272-74)। 1946 तक आते- आते गांधी को महसूस होने लगा था कि अफ्रीकन- भारतीय संयुक्त मोर्चे के लिए माकूल समय आ गया है।    


गांधी की विनोदप्रियता   
यहाँ मैं खुद से पूछता हूँ, रॉय के असल गांधी में दिलचस्पी न रखने की परवाह हम क्यों करें? आखिरकार, उन्होंने "द डॉक्टर एंड द सेंट" में अपने उद्देश्यों के बारे में संकेत जो किया है। उनकी इच्छा है, जैसा वो खुद कहती हैं-- "आसमान में तारों को पुनर्व्यवस्थित" करना (पृष्ठ 140), न कि गांधी का विश्लेषण करना या समझना। वो गांधी को निशाना बनाकर आसमान से नीचे गिराना चाहती हैं। उनके अपने शब्दों में कहें तो वे गांधी के स्मारक को खिसकाकर बाहर का रास्ता दिखाना चाहती हैं ताकि अम्बेडकर को बेहतर ढंग से समझा जा सके और उनका सम्मान किया जा सके। यह विचार उन्होंने "द डॉक्टर एंड द सेंट" में व्यक्त नहीं किये हैं, बल्कि एक सभा में जहां वो अपनी किताब की व्याख्या करने की कोशिश करती हैं, उन्होंने ऐसी इच्छा जाहिर की।

यह कहना अम्बेडकर के लिए कोई श्रद्धांजलि नहीं है कि उनकी विरासत गांधी की विरासत के ध्वंश पर निर्भर है। 

मुझे यह भी पूछना चाहिए-- किस चीज ने रॉय के अंदर गांधी के प्रति इस जबरदस्त अरुचि को पैदा किया? क्या यह गांधी की जीवनशैली थी? या फिर उनका जाहिरा यकीन कि सारे टकरावों के बावजूद, मानव मात्र को-- और नस्लों, जातियों, वर्गों और राष्ट्रों को-- ऐसे समाधान खोजने चाहिए जो कि कड़वाहट को गलाने में मदद करें?

"द डॉक्टर एंड द सेंट" गांधी की जीवनशैली के प्रति रॉय की पूर्ण असहमति को स्पष्ट कर देता है। उनके मुताबिक़, गांधी ने "अपने अनुयायियों के लिए एक उदास और हंसी- मजाक से रिक्त विरासत छोड़ी: कोई आकांक्षा नहीं, सेक्स नहीं... कोई खाना नहीं, मोती नहीं, न अच्छे कपड़े, न नाच, न कविता. और बहुत थोड़ा संगीत" (पृष्ठ 81)।

यह चित्र कितना सच है? जो "बहुत थोड़ा संगीत" उन्होंने संकोच के साथ गांधी की विरासत के तौर पर स्वीकार किया है वह दरअसल उनकी ज़िंदगी में एक रोजमर्रा की चीज़ थी; सुबह और शाम की। सच है, यह धार्मिक या आध्यात्मिक संगीत था, इसके बावजूद गांधी के पास गाने सुनने के लिए कान थे और, वास्तव में, एक ठीक-ठाक आवाज़ भी, जिसके बारे में उनके आश्रम के साथी और कैद के साथी बताते हैं।

यह भी सच है की बॉलरूम डांसिंग (और वायलिन) की शिक्षा जो उन्होंने एक छात्र के रूप में लंदन में हासिल की थी, बाद में कभी काम में नहीं लाई गयी। मगर गांधी की तरह कोई भी जो अगर "आनंद के साथ नृत्य" की इतनी बातें करता हो, नृत्य का दुश्मन नहीं हो सकता। और शायद रॉय इस बात से अनभिज्ञ हैं कि गांधी अपने जर्नल्स में इंग्लिश, हिंदी, बंगाली, उर्दू या फिर गुजराती कविताओं का भरपूर प्रयोग करते थे।

जहां तक उनकी "आनंद-विहीन और हास- परिहास विहीन" दुनिया की बात है, राइज एंड फॉल ऑफ़ द थर्ड राइख के अमरीकी लेखक विलियम शिरेर ने अपने और अपने कुछ साथियों के गांधी के साथ बिताये वक़्त की बात करते हुए जो कहा था, वो यहां प्रस्तुत है। "बहुत ही जल्दी गांधी ने हमें खूब हंसाया और सहज बना दिया. अगर इस दुनिया की तमाम शख्सियतों में कोई गांधी से आधा भी आकर्षक है; तो मैंने उसे नहीं देखा" (जैक से उद्धृत 1956:399)।

और वो दूसरों के मजाक से भी खूब आनंद उठाते थे। 1932 में पूना जेल से श्रीनिवास शास्त्री को लिखते हुए गांधी ने कहा, "सरदार पटेल मेरे साथ हैं। उनके चुटकुले मुझे तब तक हँसाते हैं जब तक मैं और हंसने की हालत में नहीं रह जाता, वो भी दिन में एक बार नहीं कई बार" (पारिख 2:91-92)। जिसने भी गांधी के साथ कुछ मिनट से ज्यादा गुजारे, वह गांधी के हंसमुख पक्ष से रूबरू हो जाता था।

इतिहास में कई अन्य लोगों की तरह, जिन्होंने अपने कन्धों पर चुनौतीपूर्ण लक्ष्य  लिए, गांधी ने सेक्स के मामले में कड़ा रुख अख्तियार किया। कई लोगों को उस रुख पर आपत्तियाँ हो सकती हैं। लेकिन रॉय गांधी को जितना शुष्क चित्रित करती हैं, उसका गांधी का कभी उनके दोस्तों या दुश्मनों से भी सामना नहीं हुआ। सच कहा जाए तो ऐसा गांधी कभी अस्तित्व में था ही नहीं।  


दंभी और गलत   
गांधी को ध्वस्त करने के क्रम में, रॉय थोड़ा ठहरकर गांधी को "दुनिया के ज्ञात इतिहास में संभवतः सबसे शातिर राजनीतिज्ञ" सिद्ध करती हैं(पृष्ठ 58)। चूंकि हर राजनीतिज्ञ किसी ख़ास लक्ष्य के लिए काम करता है, कम से कम किसी एक समय में, हम पूछ सकते हैं, वो क्या लक्ष्य थे जिनको पाने के लिए गांधी अपना शातिराना कौशल प्रयोग में लाते थे?

रॉय इस मामले में अपने स्पष्ट मत रखने से बचती हैं। हालांकि यहाँ- वहाँ परोक्ष रूप से वह ये इशारा करती हैं कि गांधी दरअसल गरीबों के पक्षधर नहीं थे और समानता स्थापित करना उनका असली लक्ष्य नहीं था। इसके बावजूद, यह काफी नहीं है कि एक "शातिर राजनीतिज्ञ" कथित तौर पर यह जानता हो कि वह क्या नहीं चाहता। बल्कि उसे यह जरूर पता होना चाहिए की वह क्या चाहता है।

एक बिंदु पर, रॉय गांधी के उद्देश्यों को समझने की तरफ बढ़ती दिखाई देती हैं। वो लिखती हैं, 
गांधी दक्षिण अफ्रीका में 20 साल की राजनीतिक गतिविधियों के बाद 1905 में भारत लौट आये, और राष्ट्रीय आंदोलन में डूब गए। उनकी पहली दिलचस्पी, जैसी कि कई राजनेताओं की होगी, तमाम तबकों को एक साथ पिरोना था जिससे कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस यह दावा कर सके कि वह उभरते हुए राष्ट्र की वैध और इकलौती प्रतिनिधि हैं (पृष्ठ 58; जोर आपका)।     
      
वह यहाँ बुरी तरह ज्ञान के दम्भ से भरी हुयी हैं, और कुछ मायनों में काफी गलत भी हैं। 

जब गांधी 1915 में भारत लौटे तब वो आईएनसी का हिस्सा नहीं थे। लेकिन वो संभवतः उस वक्त के इकलौते भारतीय जरूर थे जिनका सायास लक्ष्य सभी भारतीयों-- ऊंची जाति के हिन्दू, दलित, मुसलमान, किसान और औद्योगिक किसान-- को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल करना था। वो पहले व्यक्ति थे जो अपने भाषायी/सांस्कृतिक क्षेत्र से बाहर के लोगों को सदस्य बनाने की कोशिश करते हैं। वो पहले व्यक्ति थे जो आम लोगों तक पहुँच बनाने के लिए स्थानीय भाषाओँ के प्रयोग पर जोर देते हैं और शायद वही पहले व्यक्ति थे जो भारत की पूरी धरती को जानने के लिए प्रतिबद्ध थे और जितनी हद तक संभव हो उसके लोगों को भी। जहाँ तक उनके "राष्ट्रीय आंदोलन में डूबने" का सवाल है, यह कहना ज्यादा न्यायसंगत होगा कि 1919-20 में उन्होनें एक राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा किया, जिसमें वो और अन्य लोग सर से पाँव तक डूब गए।

"एकसूत्र में पिरोना" यह उक्ति गांधी के लिए उचित ही है ।

उनके साम्राज्यी शत्रुओं-- विंस्टन चर्चिल, लार्ड लिनलिथगो और आर्चिबाल्ड वावेल जैसे लोगों-- के दिमाग में गांधी के उद्देश्यों को लेकर कोई संदेह नहीं था। वो सब सहमत थे कि ब्रिटिश राज का अंत गांधी का सबसे बड़ा जूनून था। जबकि चर्चिल की गांधी के प्रति चिढ सबको पता है, बहुतों को नहीं पता होगा कि 1947 में, वावेल, भारत छोड़ो आंदोलन के समय ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ और 1943 से 1947 तक वाइसराय, ने गांधी को "साम्राज्य का कठोरदिल दुश्मन" कहा था और उन विरोधियों में "सबसे विकट" कहा था "जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के हिस्सों को हाल के सालों में [साम्राज्य से] अलग किया था" (मून 1973:439)।

अब, रॉय के पाठ के बारे में एक दिलचस्प-- वास्तव में, भर्त्स्ना करने योग्य-- बात। 153 पेज लम्बी अपनी विध्वंसक कवायद में रॉय आज़ादी की लड़ाई का बिलकुल ज़िक्र नहीं करतीं और "राष्ट्रीय आंदोलन" का केवल एक या दो बार। जाति, वर्ग, नस्ल और लिंग जिस पर "द डॉक्टर एंड द सेंट" उत्साहपूर्वक (और चयनात्मक रूप से) चर्चा करती है उस विश्लेषण से यह महान सन्दर्भ पूरी तरह से गायब है।

इस सन्दर्भ का मतलब था कि भारतीय, जो न केवल भारतीय अन्यायों से दुखी और शर्मिंदा थे बल्कि विदेशी शासन से भी, अपनी प्राथमिकता तय करने को बाध्य थे। कई बार, उन्हें भारतीय जुल्मों के खिलाफ संघर्ष और यूरोपियन गुलामी के खिलाफ संघर्ष में से किसी एक को चुनना पड़ता था। इस तरह वे या तो बारी- बारी से दोनों में से कोई एक चुनते थे या दोनों के बीच डोलते रहते थे।

18वीं सदी की आखिरी तिमाही में, ब्रिटेन के अमेरिकी उपनिवेश में कुछ चेतनासम्पन्न लोग भी अपनी प्राथमिकता तय करने पर मजबूर थे। सवाल था कि उन्हें अपनी ताकत गुलामी के खिलाफ लड़ाई में खर्च करनी चाहिए या ब्रिटिश राज के खात्मे पर? आखिर में, आज़ादी ने अमेरिकी ऊर्जा को अपनी तरफ ज्यादा खींचा, बनिस्पत दासता के विरोध के। दासता को अमेरिकन संविधान में वास्तव में बड़ी सरसरी तौर पर संहिताबद्ध किया गया था। इसे तो केवल 1865 में जाकर तब गैर- कानूनी घोषित किया गया, जब दक्षिण के इलाकों ने भी गृह युद्ध में आत्मसपर्पण कर दिया।

इस गृह युद्ध के बारे में राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन भी कई अन्य अमेरिकियों की तरह सोचते थे कि संघ की एकता को बचाना हर हाल में जरूरी है। और इसीलिए गुलामी का उन्मूलन तभी हुआ, जब दक्षिणी हिस्सों का विलय किया जा चुका था। अम्बेडकर, जिन्होंने न्यूयॉर्क की कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री हासिल की थी, इस बात को खूब अच्छी तरह जानते थे (1945: 271)।

गांधी और उनकी पीढ़ी जिस भारत में जी रही थी उसमें चेतनासम्पन्न लोगों के लिए एक से ज्यादा चुनौतियां थीं। इनमें से अगर तीन सबसे बड़ी चुनौतियों का नाम लिया जाए तो वे इस तरह होंगी-- भारत विदेशी शासन के अधीन एक गुलाम राष्ट्र था; भारतीय समाज के भीतर छुवाछूत की प्रथा प्रचलित थी; और देश में हिन्दूओं और मुसलामानों के बीच खाई थी। 

हालांकि जैसा कि हमने देखा गांधी के साम्राज्यी शत्रु उन्हें बुनियादी तौर पर ब्रिटिश शासन का दुश्मन मानते थे। लेकिन हम सब जानते हैं कि उन्होंने छुवाछूत के खिलाफ संघर्ष और और हिन्दू- मुस्लिम एकता की जिम्मेदारी भी अपने कन्धों पर ली थी। इन मायनों में वो भारत के बेतरह बँटे हुए समाज को एक धागे में पिरो रहे थे।


असाधारण मनुष्य 
जब गांधी यरवदा जेल में साम्राज्य के कैदी थे, सितम्बर 1932 में उन्होंने पृथक दलित निर्वाचक मंडल और उच्च जाति हिन्दुओं के मुद्दे पर एक अनियतकालीन उपवास की घोषणा की। उपवास के ठीक एक दिन पहले भारत के सबसे प्रभावशाली उच्च जाति के नेताओं ने मुंबई में संकल्प लिया कि "अछूतों" के लिए "सार्वजनिक कुओं, सार्वजनिक स्कूलों, सार्वजनिक सड़कों और अन्य सार्वजनिक संस्थानों" पर बराबरी का हक़ "स्वराज की संसद के सबसे शुरूआती अधिनियमों में" होगा (सीडब्लयू 51:159-60)। गांधी के दबाव में उन्होंने एक ऐसी ऐतिहासिक शपथ ली जो हालांकि काफी पहले ले ली जानी चाहिए थी।
    
अम्बेडकर ने इस संकल्प पर ध्यान दिया था (1945:103) लेकिन रॉय अपने सर्वेक्षण से इसको निकाल बाहर करती हैं। गांधी के इस उपवास के दबाव के चलते भारत- भर में जो मंदिर सदियों से "अछूतों" के लिए बंद थे उनके दरवाजे खुल गए। ब्राह्मणों ने दलितों को अपने घरों पर खाने के लिए आमंत्रित किया। साम्राज्य ने अपनी ओर से यरवदा जेल के दरवाजे खोल दिए और अम्बेडकर गांधी से विचार- विमर्श करने यरवदा जेल गए।

जेल में हुयी बातचीत के आधार पर दोनों नेताओं के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते में गांधी न केवल उन बातों के लिए तैयार हो गए जिनका पहले वे विरोध किया करते थे जैसे विधायिकाओं में दलितों के लिए आरक्षण बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि दलितों की सीटों की संख्या उनकी आबादी के अनुपात में होनी चाहिए। अपनी पृथक निर्वाचक मंडल-सह-आरक्षित दलित सीटों की योजना में ब्रिटिश राज ने इसकी तुलना में सिर्फ आधी सीटें निर्धारित की थीं। 

दूसरी तरफ, गांधी की जान बचाने के लिए अम्बेडकर अपनी ओर से पृथक निर्वाचक मंडल की मांग को छोड़ने के लिए सहमत हो गए जहाँ केवल दलित ही दलित प्रत्याशियों के समर्थन और विरोध में वोट करते। एक साझी जमीन पाकर, दोनों नेता इस समझौते पर राजी हुए। एक केबल लंदन भेजा गया, जहां महामहिम की सरकार ने यह साझा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और गांधी ने अपना उपवास तोड़ दिया। इस समझौते का सार तत्व कालान्तर में भारतीय संविधान में प्रतिष्ठापित हुआ।

गांधी ने उपवास के दौरान ही दावा किया कि "दलित वर्गों के सामजिक, नागरिक और राजनीतिक उत्पीड़न" का सामना "सुधारकों की एक बढ़ती हुयी सेना" करेगी। उनके लिए इस मुद्दे का, उन्होंने जोड़ा, "आध्यात्मिक महत्व, स्वराज से कहीं बढ़कर" है (सीडब्लयू 51:119)। "डॉ० अम्बेडकर, राय बहादुर श्रीनिवासन और... राय बहादुर एम० सी० राजा"-- दलित नेता, जिन्होंने उनके साथ यरवदा जेल में विचार- विनिमय किया था-- के लिए अपनी "हिन्दू कृतज्ञता" ज्ञापित करते हुए गांधी ने आगे कहा--
वो लोग तथाकथित उच्च जाति हिन्दुओं को उनकी पीढ़ियों तक किये गए पापों की सजा देने के लिए एक गैर समझौतावादी और उपेक्षापूर्ण रुख अपना सकते थे। अगर वो ऐसा करते, कम से कम मैं तो उनके रुख का विरोध नहीं कर सकता था और मेरी मौत और कुछ नहीं बल्कि असंख्य पीढ़ियों से जाति- बहिष्कृत लोगों पर किये जा रहे उत्पीड़न की एक तुच्छ कीमत होती। लेकिन उन्होंने एक महान रास्ता अपनाया और इस तरह यह सिद्ध कर दिया कि उन्होंने क्षमाशीलता की नीति अपनाई है। जिस पर सभी धर्मों ने जोर दिया है। मुझे उम्मीद करने दीजिये कि उच्च जाति के हिन्दू खुद को इस क्षमाशीलता के लायक साबित करेंगे (सीडब्लयू 51:143-45)।

साथ उच्च जाति हिन्दुओं के लिए उन्होंने एक चेतावनी जारी की और कहा कि "मैं विश्वासघात का दोषी माना जाऊंगा अगर मैं अपने साथी सुधारकों और उच्च जाति हिन्दुओं को सामान्य तौर पर यह चेतावनी नहीं देता हूँ कि उपवास का तोड़ा जाना इसे फिर से शुरू करने की शर्त पर है. अगर सुधार को लगातार आगे नहीं बढ़ाया जाता और एक नियत समय में [लक्ष्य] हासिल नहीं कर लिए जाते" (सीडब्लयू:51:143-45)।

क्या सुधार "लगातार आगे बढ़ाये गए और एक नियत समय में हासिल कर लिए गए"? बहुत कुछ किया गया, लेकिन उससे कहीं ज्यादा करने को बाकी रह गया। क्या गांधी ने इसके बाद एक और आमरण अनशन किया? नहीं, उन्होंने नहीं किया। हालांकि मई 1933 में उनके द्वारा किया गया 21 दिन लम्बा एक उपवास छुवाछूत से सम्बंधित था। क्या इसका मतलब वो पाखंडी या ढोंगी थे और दलितों के एक गुप्त शत्रु जैसे थे, जैसा कि रॉय उन पर आरोप लगाती हैं। दूसरे भले ही यह मानते हों कि वह एक असाधारण मनुष्य थे जो कि एक से ज्यादा कठिन उद्देश्यों के लिए अपनी सभी मानवीय सीमाओं के साथ लड़ रहे थे और साथ ही साथ अपने लोगों की भी।

"आप हमारे नायक बन जाएंगे"  
इस समझौते पर दस्तखत के तुरंत बाद अम्बेडकर ने कहा कि वो गांधी और अपने बीच "बहुत कुछ समान" पाकर "चकित थे; बुरी तरह चकित"। "अगर आप खुद को पूरी तरह दलित वर्गों के उत्थान के लिए समर्पित कर देते हैं", अम्बेडकर ने गांधी से कहा, "आप हमारे नायक बन जाएंगे" (प्यारेलाल 1932: 59)। 

गांधी के करीबी ब्रिटिश दोस्त, एंड्रूज़—जो गांधी को "मोहन" कहते थे और खुद गांधी जिन्हें "चार्ली" पुकारते थे-- भी गांधी को एक ऐसी ही सलाह देते हैं। यह याद दिलाते हुए कि गांधी "बार- बार" कहते थे कि छुवाछूत के बने रहते भारतीय लोग स्वराज के लिए मुफीद नहीं हैं, एंड्रूज़ ने अपने दोस्त से केवल छुवाछूत के मुद्दे पर ध्यान देने को कहा। साथ ही एक साथ "दो मालिकों की सेवा" करने की कोशिश न करने को भी हिदायत दी। (ग्रेसी 1989:155)।

हम गांधी से सहमत हों या न हों, हम उनके द्वारा इस प्रस्ताव को ठुकराने के लिए दी गयी वजहों को देख सकते हैं।

मेरे प्रिय चार्ली, मेरा जीवन एक अविभाजित इकाई है। यह टुकड़ों- टुकड़ों में बंटा नहीं है। सत्याग्रह, नागरिक प्रतिरोध, छुवाछूत, [और] हिन्दू- मुस्लिम एकता एक- दूसरे से अलग न की जा सकने वाली इकाई हैं। तुम मेरे जीवन के किसी एक समय में किसी एक चीज़ पर बलाघात देख सकते हो, किसी दूसरे समय में किसी दूसरे पर। लेकिन यह बिलकुल एक पियानो वादक की तरह है कभी एक सुर पर जोर देता है तो कभी दूसरे पर। लेकिन वो सभी एक- दूसरे से सम्बंधित होते हैं। 
मेरे लिए यह कहना एकदम असंभव है: "मुझे अब नागरिक अवज्ञा या स्वराज से कुछ लेना देना नहीं है!" यही नहीं... छुवाछूत का पूरी और अंतिम तरह उन्मूलन... स्वराज के बिना निपट असंभव है... प्रेम। मोहन (सीडब्लयू 55:196 -69; जोर आपका)

रॉय संक्षेप में अम्बेडकर के पूना पैक्ट के वक़्त गांधी के प्रति गर्मजोशी को स्वीकार करती हैं, लेकिन तुरंत यह भी जोड़ती हैं, "बाद में, हालांकि, आघात से बाहर आते हुए, अम्बेडकर लिखते हैं: उपवास में कुछ भी महान नहीं था। वह एक वह एक बेईमान और गंदा अधिनियम था" (पृष्ठ 126)।

अम्बेडकर ने वास्तव में ये कठोर शब्द इस्तेमाल किये थे। लेकिन कब? जब वो गांधी के उपवास के आघात से उबर पाये, रॉय कहती हैं। अम्बेडकर, गांधी के बेअदब विरोधी, को गांधी के "दबाव" से मुक्त होने में कितने दिन लगे? सात दिन या सात महीने? रॉय उनके इस कथन की तारीख दबा कर जो शब्द उद्धृत करती हैं, वास्तव में वो 1945 की गर्मियों में लिखे गए थे. उपवास और पैक्ट के तकरीबन 13 साल बाद एक जोशीले निबंध में, जिसका शीर्षक अम्बेडकर ने व्हॉट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटॉचब्लेस रखा था । 

इस क्रोध से भरे टेक्स्ट में, अम्बेडकर गांधी के उपवास को निशाना बनाते हैं और जिस तरह पूना पैक्ट को अमल में लाया गया उसको तरीके को भी। लेकिन-- हमें यह स्पष्ट करने दीजिये-- पैक्ट की शर्तों को उन्होंने निशाना नहीं बनाया था। 

अपने 1945 के अपने निबंध में कई जगह अम्बेडकर दावा करते हैं कि उनके लिए पूना पैक्ट एक विजय थी। इस तरह वो लिखते हैं कि "जब उपवास विफल हुआ और मि० गांधी पैक्ट पर हस्ताक्षर करने को बाध्य हुए-- जिसे पूना पैक्ट कहा जाता है और जो अछूतों की राजनीतिक मांगों को स्वीकार करता था-- उन्होंने [गांधी ने] कांग्रेस को इन राजनीतिक अधिकारों को हासिल करना मुश्किल बनाने के लिए गलत चुनावी कार्यनीति अपनाने की छूट देकर अपना बदला ले लिया" (अम्बेडकर 1945: 259)।

रॉय कहती हैं कि अम्बेडकर के पास उपवास पर डटे गांधी का सामना करते समय समझौता करने के अलावा और कोई चारा नहीं था (पृष्ठ 126)। कुछ पन्नों के बाद, वो "पूना पैक्ट की पराजय की बात" करने लगती हैं (पृष्ठ 137)। बावजूद इसके अम्बेडकर ने 1945 के अपने तेजतर्रार निबंध में न केवल पैक्ट की शर्तों की आलोचना करने से परहेज किया, बल्कि बाद में भी कभी यह कोशिश नहीं की कि पैक्ट को रद्द किया जाए या बदला जाए। कम से कम जहां तक मैं खोज सका हूँ यही सच है। पैक्ट को एक "पराजय" की तरह देखने से इतर उन्होंने इसे एक समझौते की तरह देखा जिससे सबको फायदा हुया था; दलितों को भी।

1945 का अपना यह निबंध लिखने के महज़ दो साल बाद अम्बेडकर ने संविधान निर्माण प्रक्रिया का नेतृत्व किया। यह संविधान न केवल इस पैक्ट को खुद में समाहित करता था, बल्कि आज के लिहाज से देखें तो भी यह पैक्ट एक निःस्वार्थ राजनयिक समझौते के तौर पर खड़ा दिखाई देता है।

जहाँ तक गांधी के 1932 के उपवास का ताल्लुक है, अम्बेडकर अपने 1945 के निबंध में स्वीकार करते हैं-- भले ही रॉय न करती हों-- कि रूढ़िवादी हिन्दुओं ने इसे खुद पर एक दबाव की तरह देखा और इसकी वजह से जिस पैक्ट ने जन्म लिया, उसके प्रति रोष जताया। यह देखते हुए कि जो रियायतें उन्हें मिली थीं, उनसे "अछूत खिन्न" थे, अम्बेडकर लिखते हैं कि "उच्च जाति के हिन्दुओं ने इसे [पैक्ट को] निश्चित रूप से बहुत नापसंद किया, हालांकि उनमें उसे खारिज करने की हिम्मत नहीं थी"। (1945: 90-91)

गांधी को लग रहा था कि रूढ़िवाद अपना आधार खो रहा है। नेहरू ने इसे संघर्ष को इस तरह देखा (15 फरवरी 1933),

सनातनियों के खिलाफ संघर्ष बहुत ही दिलचस्प होता जा रहा है भले ही यह मुश्किल भी होता जा रहा है... जो गालियां वो मुझे दे रहे हैं, वो शानदार ढंग से तरोताज़ा करने वाली हैं। [उनके मुताबिक़] मैं वो सब कुछ हूँ जो इस धरती पर बुरा और भ्रष्ट है। लेकिन यह तूफ़ान थमेगा... यह शमा के चारों तरफ परवाने के मरने से पहले का नृत्य है।

कोई अचरज नहीं (जैसा कि "द डॉक्टर एंड द सेंट" में रॉय स्वीकार नहीं करेंगी), कुछ सनातनियों ने 1934 में गांधी को मारने की कोशिश की। बिहार के जसीडीह और पुणे में उनकी जान लेने की कोशिशें हुई थीं।
       

जाति का विनाश तय है  
अम्बेडकर जाति, वर्ण, और वंशानुगत पेशे को लेकर 1936 में गांधी के साथ हुई बहस में स्पष्ट रूप से विजेता थे। यह एक ऐसी बहस थी जो उनके उसी साल दिए गए एक व्याख्यान अन्निहिलेशन ऑफ़ कास्ट से शुरू हुई थी। 

1936 की इस बहस के कुछ महीने पहले ही, गांधी ने जाति का सार्वजनिक रूप से बचाव करना छोड़ दिया था। 16 नवंबर 1935 के एक आलेख का शीर्षक था-- "कास्ट हैज़ टू गो"। इसमें उन्होंने लिखा, "जितनी जल्दी लोगों की चेतना से [जाति] का उन्मूलन हो जाएगा, उतना अच्छा" (सीडब्लयू 62:121-22)। 1935 के पहले, गांधी ने कुछेक बार दावा किया की जाति का "एक आदर्श" स्वरुप जायज हो सकता है। साथ ही यह भी जोड़ा कि "आदर्श" कभी व्यवहार में नहीं आता और हमेशा जोर दिया कि ऊँच और नीच का कोई भी विचार पूरी तरह गलत है। यह जाति का दिखावटी "बचाव" गांधी का अपना तरीका था जो कड़वी गोली पर मिठास की परत चढ़ाने के बाद उच्च जाति हिन्दुओं को उसे निगलने को कह रहे थे।

अम्बेडकर के साथ 1936 की बहस में भी, गांधी ने जाति के प्रति अपने नकार को यह कहते हुए कि यह "आध्यात्मिक और राष्ट्रीय विकास के लिए नुकसानदायक है" दोहराया। सबसे बढ़कर उन्होंने वो किया जिसे करने से वो तब तक हिचकिचाते रहे थे-- उन्होंने खुले तौर पर अंतर्जातीय विवाह और अंतर्जातीय भोज को स्वीकारने की पुष्टि की (अम्बेडकर 2014:326)। हालांकि उन्होंने यह भी दावा किया कि वर्ण जाति से भिन्न हैं और वर्ण को यह कहते हुए जायज ठहरने की कोशिश की कि वंशानुगत पेशे-- उनके मुताबिक़ जिस पर वर्ण विभाजन आधारित था-- सौहार्द और मितव्ययता को सुनिश्चित कर सकता था। हालांकि, उन्होंने आगे कहा कि एक शुद्ध वर्ण व्यवस्था को बहाल करना वैसा ही है जैसे कि "एक चींटी शकर के बोरे को उठाने की कोशिश करे" या "डेम पार्किंगटन एक पोंछे के सहारे अटलांटिक महासागर को पीछे धकेलने की कोशिश करे"। यानि वह कह रहे थे कि वर्ण- व्यवस्था असंभव है। वर्ण के इस आभासी "बचाव" को न तो समझना आसान था न ही सहमत होना, और इसीलिए अम्बेडकर ने आसानी से इसमें खामियां खोज लीं।

तो गांधी- अम्बेडकर की बहस पर आज इस तरह निष्कर्ष निकाले जाते हैं। बहुत से लोग अन्निहिलेशन ऑफ़ कास्ट से जो एक चीज चुनकर निकाल लाते हैं, वो है 1936 में अम्बेडकर का सभी हिन्दुओं से स्पष्ट रूप से यह कहना कि "माफ़ करियेगा, मैं आपके साथ नहीं रहूंगा... मैं [हिन्दू धर्म के] दायरे से बाहर जा रहा हूँ" (2014:317)। जो एक दूसरी चीज सामने लाई जाती है वो है गांधी द्वारा हिन्दू धर्म का बचाव करना और उनका इस बात पर खेद जताना कि अम्बेकडर ने जो "घृणा" न्यायसंगत रूप से "उसके अनुयायियों के एक हिस्से" के विरुद्ध महसूस की थी, उसे बड़ी आसानी से समूचे हिन्दू धर्म की तरफ मोड़ दिया (अम्बेडकर 2014:322)। 

गांधी की मृत्यु के आठ साल बाद, नेहरू ने यूरोपियन पत्रकार तिबोर मेंडे से कहा,
मैंने [गांधी] से बार- बार पूछा: आप जाति प्रथा पर सीधा हमला क्यों नहीं बोलते? उन्होंने कहा, "मैंने छुवाछूत का मुकाबला करते हुए इसे पूरी तरह कमजोर कर दिया है"।... गांधी की खासियत दुश्मन का सबसे कमजोर बिंदु पहचानने में थी, उसके अग्रभाग को तोड़ने में। (मेंडे में उद्धृत 1958)

यह महसूस करते हुए कि अगर वो जाति पर सीधा हमला शुरू कर देंगे तो रूढ़िवादी एकजुट हो जाएंगे, गांधी ने एक ऐसी चीज [छुवाछूत] को निशाना बनाया जिसकी कोई पैरवी और बचाव न कर सके।      


संयुक्त निर्वाचक मंडल
1937 के चुनावों में भारत के हिन्दुओं ने बड़ी तादाद में, साथ ही बहुत से दलितों ने-- जिन्हें उस वक़्त गांधी और अन्य कई भारतीय, साथ ही दलित भी, हरिजन बुलाते थे-- अम्बेडकर की पार्टी की बजाय गांधी की कांग्रेस के लिए वोट किया। जैसा कि रॉय स्वीकार नहीं करती हैं, 1937 में कांग्रेस द्वारा बनाई गयी लगभग हर प्रांतीय कैबिनेट में एक दलित मंत्री था। दिसंबर 1939 तक, जब कांग्रेस सरकारों ने इस्तीफा दे दिया (क्योंकि सितम्बर 1939 से छिड़े युद्ध ने साम्राज्य-कांग्रेस के बीच मतभेद तीखे कर दिए थे), इन सरकारों ने दलित अधिकारों के लिए कुछ उपलब्धियाँ हासिल कर ली थीं। उदाहरण के तौर पर मद्रास प्रेसीडेंसी में 1938 के एक क़ानून ने नौकरियों, कुओं, सार्वजनिक परिवहन, सड़कों, स्कूलों और कॉलेजों में दलितों के साथ किसी भी भेदभाव को गैरकानूनी घोषित कर दिया। एक दूसरे कानून ने उन मंदिरों के अधिकारियों को सुरक्षा प्रदान की जो मंदिरों के दरवाजे खोलना चाहते थे। इन कानूनों की वजह से दक्षिण भारत के कई बड़े- बड़े मंदिरों में दलितों का पहली बार प्रवेश हुआ।

अम्बेडकर के 1945 के उस लेख का सन्दर्भ क्या था जो उन्होंने नयी दिल्ली के अपने पृथ्वीराज रोड स्थित सरकारी आवास पर लिखा था? इस वक़्त, वो वाइसराय की एग्जीक्यूटिव कौंसिल के सदस्य थे। युद्ध लगभग ख़त्म होने वाला था और भारत छोड़ो आंदोलन, जिसने भारत के बड़े हिस्से में उथल- पुथल मचा दी थी, की वजह से तीन साल जेल में रहने के बाद कांग्रेस नेतृत्व रिहा किया जाने वाला था। ब्रिटिश सरकार भारत के लिए एक नयी राजनीतिक योजना लाने के कगार पर थी और पूरे देश में नए चुनाव आने वाले थे। 

एक प्रबुद्ध चिंतक और एक सदस्य (दरअसल मंत्री) 1945 का यह लेख लिखते हुए किसी भी नयी ब्रिटिश योजना को प्रभावित करना चाहते थे। साथ ही, वह एक राजनीतिक नेता भी थे जो 1937 चुनावों के परिणाम भूल नहीं सकते थे जो कि विश्व युद्ध के कारण इन चुनावों के पहले हुआ आखिरी चुनाव था। अब 1945-46 में वे बेहतर परिणामों की उम्मीद रखते थे। अपने 1945 के निबंध के मार्फ़त, 1937 के चुनाव परिणामों से बेचैन अम्बेडकर, ब्रिटिश नेताओं के सामने अपना पक्ष रख रहे थे और साथ ही भारतीय मतदाताओं के सामने भी।

हालांकि 1945 के चुनावों ने स्पष्ट कर दिया कि भारतीय मतदाताओं में, जिसमें भारी तादाद में दलित भी शामिल थे, आईएनसी को लेकर जबरदस्त आकर्षण था। उच्च जाति हिन्दुओं के साथ- साथ दलित वोट भी हासिल करते हुए आईएनसी ने 1937 की तुलना में कहीं ज्यादा संख्या में दलित सीटें जीतीं। 

कई दलित नेताओं ने यह शिकायत की कि गैर-दलित मत उनकी हार की वजह बने। दुर्भाग्य से, 1952 के आम चुनावों में अम्बेडकर के साथ खुद यही हुआ, जिसके बाद उन्होंने मंत्रिमंडल से इस बिना पर निराश होकर इस्तीफा दे दिया कि कांग्रेस हिन्दू कोड बिल पास करने में सुस्ती दिखा रही है। इसके बाद जब 1954 में उन्होंने एक उपचुनाव में शिरकत की जिसमें फिर उन्हें हार का सामना करना पड़ा। एक संयुक्त निर्वाचक मंडल में, दलितों के साथ- साथ सभी जातियों के अच्छे लोग, कई बार अपनी जाति के बाहर के वोटों की वजह से हरा दिए जाते थे, और कई बार इन "बाहरी" मतदाताओं के मतों से जीत भी जाते थे।

अम्बेडकर की विरासत पर कांशीराम द्वारा बनाई गयी बहुजन समाज पार्टी ने भारत के सबसे बड़े प्रदेश, उत्तर प्रदेश, में एक बार से ज्यादा बार सरकार चलायी। जिसका श्रेय काफी हद तक कहा जा सकता है कि पूना पैक्ट और संयुक्त निर्वाचक मंडलों को जाता है। वो एक्ट कोई मूढ़ता नहीं था जिसका रॉय को इतना दर्द है। और, इस बात की पैरवी करना मुश्किल होगा कि 2015 का भारत-- या 2015 के दलित और आदिवासी-- पृथक दलित या आदिवासी निर्वाचक मंडलों के अंतर्गत आज से बेहतर हालत में होते।


शक्तिशाली प्रतीक
चूंकि आज़ादी नज़दीक ही दिख रही थी, गांधी भारतीय समाज की समस्यायों से निपटने के लिए आमूल परिवर्तनवादी होने लगे। आज़ादी के लगभग एक साल पहले 1 अगस्त 1946 को उन्होंने पटेल को लिखा, "वो कौन लोग थे जिन्होंने हरिजनों को पीटा, उनका क़त्ल किया, कुओं का पानी लेने से रोका, उन्हें स्कूलों से बाहर निकाल फेंका और उन्हें अपने घरों में घुसने पर रोक लगाई? वो कांग्रेस के लोग थे। क्या वो नहीं थे? इस बात का हमें सटीक अंदाज़ा होना बहुत जरूरी है।” (सीडब्लयू 85:102)

इस पत्र को लिखने के तीन महीने बाद, गांधी ने खुद को पूर्वी बंगाल के नोआखाली में पाया, जहां सांप्रदायिक दंगों की आग भड़क चुकी थी। जनवरी और फ़रवरी 1947 में, वो और उनके मुट्ठी भर साथी, गाँव- गाँव भटक रहे थे। उन्होनें तकरीबन 47 रातें पूर्वी भारत के घरों में बितायी, जहां उनके ज्यादातर मेजबान दलित थे। जिनमें धोबी, मछुवारे, मोची और जुलाहे शामिल थे। नोआखाली में गांधी ने उच्च जाति की हिन्दू औरतों से कहा कि अगर वो अछूतों का तिरस्कार जारी रखती हैं, तो अभी और दुःख भोगने बाकी हैं। चांदीपुर गाँव की औरतों को उनके द्वारा एक क्रांतिकारी सलाह दी गयी-- "एक हरिजन को रोजाना अपने साथ खाने पर आमंत्रित करो। या कम-से-कम खाना खाने और पानी पीने से पहले उनसे उसे छूने को कहो। अपने पापों का प्रायश्चित करो" (तेंदुलकर 1951: वॉल० 7; 350; सी डब्लयू 93: 229)। 24 अप्रैल 1947 को उन्होंने पटना में कहा कि पिछले कुछ समय से उन्होंने "एक उसूल बनाया है कि वो उस विवाह में शामिल नहीं होंगे न ही उसे आशीर्वाद देंगे जिसमें कम-से-कम एक पक्ष हरिजन न हो"। (सीडब्लयू 87: 350)

लेकिन रॉय की इन सबमें कोई दिलचस्पी नहीं है।

आज़ादी के लगभग दो महीने पहले-- जून 1947 में-- गांधी ने प्रस्ताव दिया कि "चकरैया जैसे किसी हरिजन को या किसी हरिजन लड़की को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए और जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनना चाहिए.. ऐसी ही व्यवस्था प्रांतों के लिए की जा [सकती है]।"  (सीडब्लयू 95 : 217) 

यह पूरी तरह एक प्रतीकात्मक सलाह थी? बावजूद इसके इस बात की प्रतीकात्मकता बहुत शक्तिशाली थी। यह गांधी द्वारा दी गयी बहुतेरी सलाहों में एक थी जिसको अपने "गुरु" के अंतिम सालों में नेहरू, पटेल, राजेंद्र प्रसाद, राजगोपालाचारी और आईएनसी के अन्य नेताओं ने सफलतापूर्वक अनसुना कर दिया था। 

14 जून 1947 को, जबकि विभाजन स्वीकार कर लिया गया था और आज़ादी बस दो महीने दूर थी, गांधी ने कांग्रेस को छुवाछूत और जातिगत भेदभाव और आदिवासी प्रश्नों पर सीधा मोर्चा लेने की सलाह दी।   

"और अछूतों का क्या? अगर तुम कहते हो कि 'अछूत' कुछ नहीं हैं, आदिवासी कुछ नहीं हैं, फिर तुम खुद को ज़िंदा नहीं रख पाओगे। लेकिन अगर तुम सवर्ण और अवर्ण के भेद को मिटा लेते हो, अगर तुम शूद्रों को, अछूतों को, और आदिवासियों के साथ बराबरी का बर्ताव करते हो तो इस बुरी चीज [विभाजन] से भी शायद कुछ अच्छा निकलकर आएगा" (सी डब्लयू 95: 286-87)।

स्वराज की लड़ाई जीत ली गयी है, अब कांग्रेस के पास सामजिक न्याय की लड़ाई को टालने का कोई बहाना नहीं है, गांधी ने स्पष्ट कहा।

रॉय के लिए इस सबका कोई महत्त्व नहीं है। उनके मुताबिक़ "गांधी के जाति सम्बन्धी विचारों और हिन्दू दक्षिणपंथ के विचारों में कोई भेद कभी प्रकाश में नहीं आया"। वो आगे कहती हैं कि "दलित दृष्टिकोण से देखें तो, गांधी की हत्या भ्रात-हत्या ज्यादा लगती है, बजाय एक विचारधारात्मक विरोधी की हत्या के" (पृष्ठ 128)।

लेकिन दूसरी तरफ रॉय खुद गांधी और हिन्दू दक्षिणपंथ के बीच एक विचारधारात्मक संघर्ष को स्वीकारती हैं। इस तरह वो लिखती हैं-- "आज भी हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सहिष्णुता और समावेशीकरण का सन्देश गांधी का वास्तविक, दीर्घजीवी और भारत के विचार के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण योगदान है" (पृष्ठ 82)। इसका मतलब यह कि गांधी और हिन्दू दक्षिणपंथ के बीच के इस विचारधारात्मक संघर्ष को रॉय तो बखूबी पहचान सकती हैं, लेकिन अगर दलित दृष्टिकोण से देखें तो दलित नहीं पहचान सकते।

अहम साझेदारी
दिसंबर 1946 में गांधी ने एक प्रस्ताव दिया, जिसे नेहरू और पटेल ने स्वीकार कर लिया था (गोरे 1993: 180-81; रामचंद्रन 1964: 179) । दलित साहित्य अम्बेडकर को आज़ाद भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल करने के गांधी के अनूठे प्रस्ताव-- जिसे नेहरू और पटेल ने आगे बढ़ाया-- के पीछे गांधी की अहम भूमिका को दर्ज करता है (गोरे 1993: 180-81; शास्त्री 1991: 32-33)। लेकिन रॉय इसके ऊपर एक मोटी चादर डाल देती हैं। अम्बेडकर के 1933 से 1947 के बीच गांधी और आईएनसी के प्रति तीखी आलोचना पर दर्जनों पेज खर्च करने के बाद रॉय सिर्फ यह कहती हैं,

सद्भावना के तौर पर और शायद इसलिए कि उस काम को करने के लिए उनकी बराबरी का कोई दूसरा मौजूद नहीं था, कांग्रेस ने अम्बेडकर को संविधान सभा में नियुक्त किया। अगस्त 1947 में अम्बेडकर भारत के पहले कानून मंत्री बनाये गए और संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष भी।  

बस इतना ही। इस निमंत्रण और उसके स्वीकारने के पीछे की राजनीतिक परिपक्वता पर कोई टिप्पणी न करते हुए, वो बड़े प्रभावी ढंग से दो कट्टर प्रतिद्वंदियों के उल्लेखनीय रूप से साथ आने-- जिसके परिणामस्वरूप अपने जीवन के अंतिम दौर में गांधी की अम्बेडकर के साथ साझेदारी संभव हुयी-- की घटना को छिपा ले जाती हैं। 

अम्बेडकर के संविधान सभा में आने के अद्भुत परिणामों के बारे में हर कोई जानता है। एक मेधावी और गर्मजोश इंसान, जो साथ ही साथ एक भारतीय और दलित भी थे, ने एक ऐसे संविधान को निर्देशित किया जो उस समाज के भीतर सभी तबकों को समान अधिकार देता था जिसने सदियों तक उनके जैसे तमाम लोगों को कमतर और अछूत कहा था और उनके साथ कठोर बर्ताव किया था। और, एक चुनी हुयी संविधान सभा, जहाँ एक बड़ी बहुसंख्या उच्च जाति हिन्दुओं की थी, ने इस संविधान का स्वागत किया और उसे अंगीकार किया।

गांधी की हत्या के दो महीने बाद जब अम्बेडकर ने शारदा कबीर-- एक ब्राह्मण डॉक्टर-- के साथ विवाह किया  तो पटेल ने उन्हें लिखा, “मुझे यकीन है अगर बापू जिन्दा होते उन्होंने आपको आशीर्वाद दिया होता"। अम्बेडकर ने जवाब दिया कि “मैं सहमत हूँ कि अगर बापू ज़िंदा होते, इसे आशीर्वाद जरूर देते” (दास, 1971, वॉल० 6: 302)। 

इस तरह की बातचीत रॉय पर कोई प्रभाव नहीं डालती। उनके कठोर और निराशावादी दृष्टिकोण से संविधान, जोकि गांधी- अम्बेडकर के बीच यह सौहार्द और संविधान सभा की चर्चाओं का परिणाम था, "अम्बेडकर के विचारों की बजाय विशेषाधिकार- संपन्न उच्च जातियों के विचारों को प्रतिबिंबित करता था" (पृष्ठ 138)। वो इस बात से भी खिन्न दिखती हैं कि देश में अम्बेडकर की तमाम मूर्तियाँ उन्हें हाथ में संविधान पकड़े दिखाती हैं। इसकी बजाय अगर उनका बस चलता तो वो उन्हें अन्निहिलेशन ऑफ़ कास्ट पकड़े दिखाने को कहतीं (पृष्ठ 44)।

इस अभिलाषा में कोई बुराई नहीं है। मगर रॉय का 1947 में गांधी, अम्बेडकर, नेहरू और पटेल के बीच बनी समझदारी को छिपा ले जाना, उनके लेख के प्रति हमारे संदेह को मजबूत करता है। 

रॉय 1931 में गांधी द्वारा दिए गए एक विशेष वक्तव्य को उद्धृत करती हैं।
यह कहा जा रहा है कि भारतीय स्वराज बहुसंख्या का राज होगा, यानी कि हिन्दुओं का। इससे बड़ी भूल कोई हो ही नहीं सकती... अगर यह सच होने वाला है तो मैं इसे स्वराज कहने से इंकार कर दूंगा और जितनी ताकत मेरे पास है उतनी ताकत के साथ इसके खिलाफ लड़ूंगा, मेरे लिए हिन्द स्वराज का मतलब है सभी लोगों का राज, न्याय का राज। 

लेकिन, रॉय जोड़ती हैं,
अम्बेडकर के लिए, 'लोग' कोई सजातीय श्रेणी नहीं थे (पृष्ठ 45)।

न ही वह गांधी के लिए थे। दोनों ही एक विविध और कई बार बुरी तरह बँटे हुए समाज के विभिन्न तबकों के बीच संघर्ष की अपरिहार्यता को पहचानते थे-- भारतीयों के वर्गों और जातियों के बीच; भाषा, धर्म, संप्रदाय, या पार्टी के आधार पर बने समूहों के बीच। दोनों सहमत थे कि संघर्ष शान्तिपूर्ण ढंग से ही होना चाहिए-- दृढ़प्रतिज्ञ, निडर और जोश से भरा हुआ। लेकिन हिंसक हरगिज नहीं, क्योंकि हत्या हमेशा संघर्ष के लक्ष्य को नुकसान पहुंचाती है। दलित एकता, दलित शिक्षा और दलित वोट अम्बेडकर के लिए और गांधी के लिए भी वे हथियार थे जो लाठी या बन्दूक से कहीं बेहतर थे। जब एक कमजोर दलित द्वारा यह [लाठी या बन्दूक] प्रयोग किये जाएं, तो वह केवल अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से हथियारबंद शत्रु के हाथ का खिलौना बन जाता है। दोनों ने महसूस किया था कि सामजिक न्याय के संघर्ष का चरम आम तौर पर बातचीत और समझौता होता है, न कि विरोधी का समर्पण और किसी एक पक्ष की पूरी तरह पराजय। कड़वे अनुभवों के बावजूद, दोनों जानते थे कि एक संघर्ष में विरोधी, अन्य, भी एक इंसान है, और न्याय मेलमिलाप के बिना कम ही टिकता है।

1932 का पूना पैक्ट और 15 साल बाद आज़ादी के वक़्त गांधी- अम्बेडकर की साझेदारी, भारतीय समाज और राजनीति के लिए एक विजय थी और जो दो लोग इसमें शामिल थे, उनके लिए भी। आपस में उनका समझौता भले ही तात्कालिक हो और उनके तर्क- वितर्क बहुत ज्यादा, लेकिन समझौते भारत के लिए-- यहां तक कि बाहर के लिए भी-- बेहद अहम थे।  


रॉय और मौखिक मोर्चाबंदी
फ़रवरी 1946 में रॉयल इंडियन नेवी के भारतीय सैनिकों ने बम्बई में असफल विद्रोह किया (एक भी भारतीय अधिकारी ने उसका समर्थन नहीं किया था)। सैनिकों ने अरुणा आसफ अली से समर्थन की दरखास्त की। उस वक़्त अरुणा आसफ अली और गांधी के बीच एक दिलचस्प बहस में हुयी। 1942 के भारत छोड़ो संघर्ष की एक नायिका अली 1946 में कई दूसरे नेताओं की तरह हिन्दू- मुस्लिम मतभेदों को लेकर चिंतित थीं। यह देखते हुए कि सैनिकों में हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल हैं, उन्होंने उत्साहित होकर कहा कि "वो हिन्दुओं और मुसलमानों को संवैधानिक मोर्चे की बजाय उन्हें एक सीधी लड़ाई के मोर्चे पर एकजुट करना पसंद करेंगी"। गांधी ने उनके इस तर्क का 26 फ़रवरी 1946 को जवाब दिया--

हिंसा के सन्दर्भ में भी कहें तो यह एक भ्रामक रणनीति है... योद्धा हमेशा मोर्चे पर ही नहीं जीते हैं। वो इतने बुद्धिमान होते हैं कि आत्महत्या नहीं करेंगे। मोर्चे की ज़िंदगी के बाद हमेशा संवैधानिक [ज़िंदगी आती है]। यह [संवैधानिक] मोर्चा हमेशा वर्जित ही नहीं रहता। (सीडब्लयू 83: 182-83) 

मुझे संदेह है कि रॉय मौखिक मोर्चाबंदी की प्रेमी हैं। वो न्याय से प्रेम करती हैं और निस्संदेह बड़े चित्रात्मक ढंग से कमजोर लोगों के कष्टों का बखान कर सकती हैं। लेकिन वो समझौते पसंद नहीं करतीं। वो मोर्चाबन्द लड़ाइयों को अनंत काल तक चलाना चाहती हैं। मैं यह सकता हूँ क्योंकि मैं अभी भी "द डॉक्टर एंड द सेंट" लिखने के पीछे उनके किसी सकारात्मक उद्देश्य की खोज कर रहा हूँ। इसमें कोई शक नहीं है कि वो भारत पर गांधी की जगह अम्बेडकर को "मुख्य नायक" के तौर पर स्वीकार करने का दबाव बना रही हैं। भले ही, एक क्षण के लिए ही, हम कल्पना करें कि ऐसा कुछ हो। "द डॉक्टर एंड द सेंट" में यहाँ- वहाँ वो अम्बेडकर में खामियाँ ढूंढती नज़र आती हैं-- जैसे अम्बेडकर का आदिवासियों के प्रति दृष्टिकोण। वो जाति को नज़रन्दाज़ करने के लिए भारतीय वामपंथ की आलोचना करती हैं, पर साथ ही यह खेद भी जताती हैं कि अम्बेडकर ने भारतीय वामपंथ के साथ किसी सतत गठबंधन का विकास नहीं किया।

वो यह करने के लिए स्वतंत्र हैं। इसके बावजूद, रॉय से यह पूछना जायज है-- "आपकी प्रेरणा, आपका नायक, आपकी उम्मीद कौन है? वो कौन है जिसे आप भारत की धरती और उसकी दुनिया से असंतुष्ट लोगों को अनुसरण करने को कहती हैं?"

अगर वो अम्बेडकर हैं, तो वो ऐसा क्यों नहीं कहतीं? अगर वो कोई और है, या एक से ज्यादा लोग हैं, तो रॉय को उनका नाम लेने दीजिये। या वो किसी दर्शन का नाम भी ले सकती हैं, किसी विचार का या किसी ख़ास दृष्टिकोण का। या किसी राजनैतिक पार्टी का भी। आखिर वो अपने निबंध के दो आकर्षक व्यक्तित्वों से कुछ सीख सकती हैं, जो जानते थे कि उन्हें किसका विरोध करना है और साथ ही यह भी कि वो चाहते क्या हैं? 

अगर रॉय जानती हैं कि वो भारत के लिए चाहती क्या हैं, उन्हें भविष्य की उस राह के संकेत देने चाहिए। बजाय इसके वो छलांग मारकर और उछल-कूद कर उससे बच निकलती हैं, जिसे वो ऐतिहासिक आधार कहती हैं। आखिर संस्थापकों की विफलताओं के बिखरे हुये संदेहास्पद "निष्कर्ष" ही काफी नहीं होते।         
   
(अनुवाद सौरभ बाजपेयी द्वारा अंतिम जन के लिए)

टिप्पणियाँ

  1. "एक था डॉक्टर एक था संत"पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि जैसे अरुंधति रॉय ने साबित कर दिया है कि दरअसल भारत मे हिन्दू राष्ट्र के जातीयतावादी और नृजातीय श्रेष्ठता के सारे बीज गाँधी ने ही बोये थे।

    अपने आरोप परक एकांगी तर्कों में ,मुझे महसूस होता है कि मुहम्मद अली जिन्ना बोल रहा है,अरुंधति रॉय के साहसपूर्ण मुख से।

    निःसंदेह दलित शिक्षित युवा इस किताब को अत्यंत प्रशंसापूर्ण दृष्टि से स्वीकार करते हैं। सम्भवतः वे सत्य तक पहुंच गये हों। उन्हें बधाई !

    इस बात को स्वीकार करना बेहद कठिन महसूस हुआ कि एक लेखक के तौर पर वह ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रति इतनी कम संवेदी और गाँधी जी के प्रति इतनी शत्रुतापूर्ण क्यों रही हैं ?

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